कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
''हां! ''-बीना ने सांस रोककर कहा। ''तो जो तुम कहोगी, मैं करूंगा। जाओ,
अम्मा से कह दो, तुमने अपना काम कर दिया।'' यह कह, गोपाल फिर आंखें बंद कर
कुर्सी पर बैठ गया। वह थक गया था, हार गया था, अम्मा की जीत हुई थी। पर आज
वह बोल सका था, उसने बीना से कहा था-''और तुम बीना?'' अब वह चुप न रहेगा।
वह फिर गहरे सोच में पड़ गया। पर इस सोच में निराशा न थी।
उधर अम्मा कैलाश को लिए दरवाजे के पीछे खड़ी सब सुन रही थीं। गोपाल के वचन
देने पर उन्होंने सन्तोष की सांस ली और कुछ देर बाद कैलाश को गोपाल के
निश्चय को दृढ़ करने को भेजा। कैलाश भी एक अभिनय सा करता हुआ कमरे में आते
ही बोला-''भाई, वाह। यह क्या हो रहा है? खैर, शुक्र है, जोश तो आया! अम्मा
से अभी मुझे मालूम हुआ कि हमारे वैरागी साहब अब रास्ते पर आ रहे हैं। चलो,
आज की खुशी में तुम्हारी यह दाढी साफ कर दी जाए।''
गोपाल निश्चल बैठ रहा। कैलाश कुछ समझता, कुछ न समझता सा पास ही बैठ गया।
अभिनय का पहला हिस्सा खत्म हो गया था और आगे उसकी समझ में न आ रहा था कि
वह क्या कहे! उसको गोपाल की आंखों में अब भी वही हठ दीख रहा था। उसके
भावावेश में कोई अन्तर न था। कैलाश कुछ उलझ कर बोला-''ऐसी भी क्या
बात है, गोपाल? तुम तो ऐसे बन रहे हो, जैसे कि यह सब दुनिया में होना ही
नहीं। अभी कुछ ही साल की तो बात है, जब तुमने रमेश को खुद समझा-बुझा कर
उसकी दूसरी शादी करवाई थी। तुम दोस्त के नाते उसके ब्याह में गए भी थे। तब
तो तुम बड़े फिलासफर बना करते थे...तुम्हीं ने तो कहा था कि भूत को वर्तमान
और भविष्य पर हावी नहीं होने देना चाहिए।...तुम्हीं तो कहा करते थे कि
निराशावादी नहीं, आशावादी हूं। तुम्हारा ही कहना था कि इन्सान को हर
परिस्थिति में सुख को फिर से गढ़ना होता है। इनसान कलाकार है और यह उसकी
सबसे बड़ी कला है। अब क्या हो गया है तुम्हें? इस दुनिया को छोड़ कर जो चला
जाता है, उसको प्रियजनों के दुख से कभी सुख नहीं मिल सकता! बोलो, कहो,
क्या यह सब तुम नहीं कहते थे?''
गोपाल ने एक ठंडी सांस ली, फिर कहा-''हां, मैं ही यह सब कहता था...और अब
भी कहता हूं।''
''तो फिर यह वैरागी होने को ढोंग क्या रचा है तुमने? क्यों मां को इतने
दिनों से तड़पा रहे हो? क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो?-कैलाश ने आवेश
में कहा।
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