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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


गोपाल सोच रहा था। अपना साहस बटोर रहा था; बोला-''कैलाश, तुम मुझे गलत समझ रहे हो। यह ढोंग मैंने इसलिए नहीं रचा कि मैं दुनिया को यह दिखाना चाहता हूं कि मैं एक आदर्श पति हूं। मेरे विचार अब भी वही हैं, जो पहले थे। मैं मौत और जिन्दगी को सम्मिलित नहीं करता। प्रेतात्मा और जीवित आत्मा का नाता कैसा? इस दुनिया में रह कर उस दुनिया से सम्बन्ध कैसा? पर...पर मैं कायर हूं। मैं बुजदिल हूं, कैलाश!...आज अम्मा ने बेचारी बीना को मेरे पास शादी का वचन लेने को भेजा था। 'बीना' को! बेचारी बीना को मुझे समझाने भेजा था कि जीवन में तो रंगीनियों से यों मुंह नहीं मोड़ा जाता। यह भी कहलवाया कि हँसना, बोलना, खेलना, घूमना, कपड़े पहनना, श्रृंगार करना ही जीना है। और, यह सब रूखे बाल और सूने ललाट-वाली बीना मुझे समझाने को भेजी गई थी, जिसे मैं अभी दो साल हुए, ब्याह कर लाया था, जो मेरी छोटी बहन के समान है, जिसे ईश्वर ने नहीं, समाज ने आजन्म फांसी पर लटके रहने का दण्ड दिया है। वह मुझसे कह रही थी कि मैं अपने जीवन में रस भर लूं, संगीत भर लूं और रंग भर रंगरलियां मनाऊं! मैं वचन दूं कि काल से हार नहीं मानता! कैलाश! एक खण्डहर कह रहा था कि मैं एक विशाल महल बनूं। उफ! अम्मा को कोई और न मिला था?''

''फिर तुमने उससे क्या कहा, गोपाल?''-कैलाश ने पूछा।
''मैं उस बेचारी की पहली मांग पर 'न' कैसे कहता? मैंने वचन दे दिया। अम्मा ने उसे मेरे पास भेजा था। अब मैं भी तुम्हें उनके पास भेजना चाहता हूं। तुम्हें इसलिए भेज रहा हूं कि मैं कायर हूं। उनका बेटा होने के नाते मेरी जबान खुल न पाएगी। मैंने कुछ दिन हुए, उनसे एक बार बीना के इस नीरस जीवन के बारे में बातें की थीं। उसकी इस वेश-भूषा को बदलने को कहा था। जानते हो, उन्होंने मुझसे क्या कहा?''
''क्या?''-कैलाश ने डरते-डरते पूछा।

गोपाल बोला-''मां कहने लगीं-मुझे क्या? कह दो जाकर, मुंह काला कर ले!-कैलाश! वे ऐसे बोलीं, जैसे किसी भेड़-बकरी की बात कर रही हों। मैं बुजदिल की तरह वहां से भाग आया। पर अब मैं चुप न रहूंगा। मैं पागल हो रहा हूं। तुम उनसे पूछो, कैलाश, उन के छोटे बेटे की मृत्यु हो गई। वे मां हैं और मां की ममता से बढ़ कर, कहते हैं, कोई ममता नहीं। फिर भी उस दुख को सहन कर वे फिर से सुख की दुनिया में रहना चाहती हैं। मैं उसका बड़ा भाई था। बहुत प्यार करता था मैं उसे। पच्चीस साल का नाता था मेरा-उसका-फिर भी, मैं अपनी दूसरी शादी कर उसे भूल जाऊंगा। अपनी राधा, अपनी पत्नी को भूल जाऊंगा, नई बहू लाऊंगा-और केवल मां के कहने से नहीं, जिन्दगी के कहने से! शोक की एक सीमा होती है।...अम्मा की दुनिया न बदली। मेरी दुनिया में फिर वसंत आएगा। पर साल-दो साल की ब्याही पराई लड़की से हम चाहते हैं कि वह आजन्म उस परदेशी की स्मृति में धूनी रमा सदा के लिए सन्यासिन हो जाए। वह अपना दुख एक त्योहार की तरह मनाए। उनसे पूछो, कैलाश, दुख भी क्या मनाने की चीज है? दुख कोई त्योहार नहीं, जो मनाया जाए। ओह! मैं यह सब नहीं देख सकता, कैलाश, नहीं देख सकता!'' गोपाल फिर उन्मादित हो अपने बाल नोंचने लगा।

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