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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


और दिन बीना चाय देकर चली जाती थी। पर आज वह खड़ी रही। आंखें बंद होने पर भी गोपाल को यह मालूम था कि बीना खड़ी है और वह सोच रहा था कि बीना क्यों खड़ी है, वह क्या कर सकता है उसके लिए? तभी फिर एक डरी हुई आवाज आई-'''भइया!'' गोपाल सहम कर चौंक गया। आज बीना कुछ कहना चाहती थी। कैसे सुनेगा वह? क्या करेगा वह? पर बीना अब भी खड़ी थी। वह भी खड़ा हो गया। उसने देखा, बीना घबरा रही है।
''क्या है बीना?''-उसने हताश स्वर में पूछा।
''मेरी एक बात मानेंगे आप?''
गोपाल ने सुना। वह घबरा रहा था। जो कभी कुछ न बोली हो, वह आज एक बात कहेगी। वह 'न' कैसे कह सकता था। ''हां...हां...बैठो।'' उसने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा।

''पहले मुझे वचन दीजिए।''-बीना ने लड़खड़ाते स्वर में कहा।
''वचन देता हूं।'' वचन देते समय गोपाल को कोई शंका न हुई।  
''आप अम्मा का कहना क्यों नहीं मानते? आप शादी कर लीजिए।'' बीना ने भीख सी मांगी। गोपाल सिर से पैर तक कांप गया। उसका सारा शरीर बुरी तरह झनझना रहा था।

''यह 'तुम' कह रही हो बीना?...यह अम्मा ने 'तुम' से कहलवाया है? और कोई न मिला उन्हें?''-गोपाल तड़प गया और अपने हाथों से अपना मुंह ढांक कर बैठ गया।

''हां, मैं कह रही हूं। क्या मैं आपकी कोई नहीं हूं? क्या अब मैं कुछ कह भी नहीं सकती? आप शादी नहीं करते, आप हँसते नहीं, बोलते नहीं-आप कुछ भी तो नहीं करते। ये कपड़े, ये दाढ़ी, ये बाल!''-वह आगे न कह सकी, गला रुंध रहा था उसका।
''मैं हँसता नहीं, बोलता नहीं, कुछ भी तो नहीं करता...! ह ह ह ह ह! ये मेरे कपड़े, ये दाढ़ी, ये बाल...और तुम? तुम बीना?''-गोपाल की चेतना को न जाने कहां से साहस आ गया। पर बीना सिहर गई।  
''मैं?...मैं?...क्या कह रहे हैं आप?''-बीना एक डरी हिरनी सी आंखें फाड़े गोपाल की ओर देख रही थी।
''मैं क्या कह रहा हूं? हां...मैं क्या कह रहा हूं। हूं! ह: ह: ह:!! हा हा हा हा!!!'' गोपाल उन्माद का ठहाका मार हँसा। बीना से गापाल का यह हँसता रुदन न देखा गया। वह डरी हुई सी पीछे हटने लगी। उसने अपनी आंखें मूंद लीं। कानों पर हाथ रख लिए। फिर वह घबरा कर रो दी। गोपाल ने देखा, देख कर अपने को धिक्कारा।
''बीना! बीना! सुनो!'' वह सस्नेह बोला। बीना ने सिसकी भरते हुए उसकी ओर डरी आंखों से देखा। उसकी आंखें उस समय उस कुत्ते की आंखों के समान थीं, जो मालिक से अकारण ही झिड़की खाने के बाद फिर प्यार से बुलाया गया हो। उन आंखों में सन्देह, विश्वास, स्नेह और भय का विचित्र मिश्रण था। गोपाल को अपने ऊपर क्रोध आ रहा था मन में उन आंखों को देख अति ग्लानि थी। ''सुनो!''-वह शान्त होते हुए बोला-''तुमने मुझसे वचन लिया है न?...बोलो।''  

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