आज शाम को गोपाल काम से लौटने पर आरामकुर्सी पर हाथों से आंखें मूंदे हुए
बैठा था। बीना चाय की ट्रे लेकर आई। सदा बीना ही चाय लाया करती थी। घर में
नौकरों की कमी न थी, पर वह यह काम खुद ही करती थी। शायद इस सेवा में वह
अज्ञात रूप से गोपाल को उसकी अव्यक्त सहानुभूति के लिए धन्यवाद सा देती
हो, अथवा अस्पष्ट रूप में वह गोपाल को अपनी संवेदना दिखाना चाहती हो; तो,
बीना आज भी हमेशा की तरह चाय लेकर आई, पर आज उसके हाथ कांप रहे थे। ट्रे
के बर्तन खनखना रहे थे, पर गोपाल की विचारधारा कुछ ऐसी गहन गंभीर थी कि वह
वैसे ही बैठा रहा। बीना ने कहा ''भइया!'' उसका स्वर कांप रहा था। गोपाल ने
आंखें खोलीं। बीना का स्वर पहचानते ही वह स्वाभाविकता से बोला-''चाय लाई
हो, बीना?'' जवाब में बीना ने ट्रे के बर्तन खनखना दिए। गोपाल ने मुड़ कर
देखा। उसके हाथ से ट्रे ले ली और फिर बैठ गया। बीना को देख, उसे न जाने
क्या हो जाता था। वह बहुत कुछ कहना चाहता था, पर क़ुछ न कह पाता था, न कुछ
कर ही पाता था। उसे सब व्यर्थ सा लगता था। व्यर्थ को ढोंगी-पोली
सहानुभूति, सब व्यर्थ! जब वह बीना के वृद्ध यौवन को देखता, जब वह उसके
जीवित शरीर और मृत आत्मा को देखता, जब वह उसकी आंखों के बुझे दीपों को
देखता, तो उसे लगता, जैसे हजारों शक्तियां उसे पुकार रही हैं कि वह कुछ
करे-कुछ करे, जिस से बीना की, जिससे वैधव्य की यह कुरूपता बदल जाए। पर वह
अकर्मण्य खड़ा रहता। उसके कानों में 'कायर, निकम्मा, ढोंगी, स्वार्थी,
निर्लज्ज, पशु पाषाण' की ध्वनियां उठतीं-जैसे उसकी समस्त शक्तियां उसे
धिक्कार रही हों। पर वह कुछ कर न पाता, कुछ कह न पाता और बेबस सा मौन हो
अपनी आंखें मूंद लेता-जैसे उसकी आंखे बंद हो जाने से बीना का वैधव्य ही हट
जाता हो।
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