कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
अर्द्धरात्रि की निस्तब्ध सुषुप्ति। रानी ने राजा के कमरे में प्रवेश किया। रणधीर शय्या पर पड़ा छटपटा रहा था। रेवती खड़ी रह कर पति की दशा देखने लगी। फिर पलंग पर बैठ गई। पति का मस्तक उसने अपनी गोद में उठा लिया-''क्या हो गया आज तुमको, महाराज?''
''तुमने मेरा भी संस्कार कर डाला न? परन्तु इतनी जल्दी? मुझे इतनी जल्दी की आशा नहीं थी, यद्यपि मैं देख रहा था कि आल्मारी की बोतलें खाली हो रही हैं। अब तो आल्मारी ही खाली है।''
रेवती चुप रही।
''क्या देख रही हो, रेवती?''
''अपने पति को। न सवेरे भोजन, न रात को भोजन। आज से नित्य भोजन करोगे। चलो, उठो।''
एक आज्ञापालक शिशु-सा राजा उठा और चांदी की थाली-कटोरियों में नाना प्रकार के भोजनों को देखकर वह विस्मित हुआ-''यह सब किसने बनाया?''
रेवती केवल मुसकरा दी।
भोर की सुहावनी घड़ियां विश्व प्रांगण में तब पहुंच नहीं पाईं थी। राजा रेवती को देखता हुआ बोला-''आज रात जाग कर किस साधना में लगी हुई हो, रेवा?...न बोलोगी? परन्तु सुनो तो, एक अपंग पुरुष नारी को सन्तान की भिक्षा कैसे दे सकता है? तुम्हारे बाह्य और अन्तरंग, दोनों रूपों ने मुझे मोह लिया है। कितना भयंकर पशु हूं मैं! क्या अब भी नहीं समझीं?''
रानी मुसकरा दी।
राजा ने आंखें गड़ा कर रानी की ओर देखा-''क्या चाहती हो, रानी? सन्तान? राजवंश की रक्षा? तो 'टी...ऊ...ब...बे...बी'।''
रेवती बीच में ही गरज उठी-''बस, चुप रहो! एक दिन उस अभागिनी के, मेरी जीजी के, तुम्हारे इन्हीं शब्दों से प्राण गए थे। मैं सब जानती हूं!''
''तुम...तुम इतना भी जानती हो, रेवा?''
''क्या चाहती हूं? इसी राजवंश की सन्तान! तुम नहीं, एक दिन मैं ही तुम्हें भिक्षा दूंगी। तुम अपंग हो? तुम्हारी यह मिथ्या कल्पना है। बस, अब सो जाओ।''
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