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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


बुझे दीप

विमला रैना

एक छोटी-सी दुनिया उसकी भी थी और वह बड़ा सुखी था अपनी उस दुनिया में। उसका नाम था-गोपाल। वह सुन्दर था, भावुक था और विनोदप्रिय था। लोग उसे भाग्यवान कहते थे। घर में मां थी, छोटा भाई था और जीवन में मुसकान लाने वाली राधा-उसकी पत्नी। अभी छोटे भाई प्राण का विवाह हुआ था। घर में छोटी-सी, सुन्दर सी, बहू आई। अम्मा अपनी सुन्दर सुशील बहुओं को देख निहाल हो जाती थी और गोपाल का जीवन एक मधुर संगीत भरी सरिता के समान इठलाता हुआ चल रहा था।

इधर जीवन सरिता बही जा रही थी, उधर काल खड़ा मुसकरा रहा था। एक दिन भयंकर तूफान आया और जीवन सरिता अनायास ही मरुभूमि बन गई। गोपाल की राधा मायके गई हुई थी। गोपाल कार्यवश उसे लिवाने न जा सका। उसने छोटे भाई प्राण को अपनी भाभी को लिवाने को भेज दिया। प्राण भाभी को लेकर मोटर से लौट रहा था। मोटर तेजी से चली आ रही थी कि अचानक एक भारी ट्रक से टकरा गई। दुर्भाग्यवश, मोटर में आग लग गई और काल के भीषण अट्टहास से दोनों की जीवन ज्योति बुझ गई।

गोपाल पर ऐसा आघात हुआ कि वह जीवित ही मर गया। अम्मा पर एक ही पल में दुख का पहाड़ टूट पड़ा। एक ही बार में काल ने उनके छोटे बेटे प्राण और बड़ी बहू राधा को उनसे छीन लिया। अब घर मे बड़ा बेटा गोपाल और छोटी बहू बीना, दो बुझे दीपक के समान रह गए। उनके घर में सहसा अंधेरा छा गया।

छोटी सी बीना ने एक विधवा का रूप धारण कर लिया। इस बीना के तार टूट गए थे। अब वह कभी झंकृत न होने वाले थे। उसका संगीत कहीं नीरवता की गोद में जाकर सो गया। उसकी आंखों की चमक आंसुओं से बह गई थी। उनमें भय का अंधेरा छा गया था। उसके अधरों की मुसकान सिकुड़कर केवल रुदन का कम्पन बन कर रह गई थी। उसका हृदय केवल गति का एक यन्त्र बन गया था-भाव-हीन, लक्ष्यहीन, अर्थहीन! अब उसका जीवन ही व्यर्थ और निरर्थक था-एक भारी बोझ, जिसके भार से वह खुद दबी जा रही थी और गोपाल को भी दबा रही थी। वह स्वयं मानो दुखद पीड़ा का साकार रूप हो, भाग्यहीनता का प्रतिबिम्ब हो, शंका और भय की छाया हो। उसे देख, लोगों की मुसकान क्षीण पड़ जाती थी, हँसी कांप जाती थी, उल्लास मौन हो जाता था। बेचारी छोटी सी बीना एक अटूट दुखद रागिनी सी बन गई थी। वेदना, दुख और पीड़ा ही उसके स्वर, गति और लय थे। वह जहां जाती, यह रागिनी उसके पद से झंकृत होती। कभी-कभी वह अपने मन से पूछती-''क्या सती की प्रथा उसकी इस दशा से अधिक भयंकर थी?''

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