कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
न जाने कितनी बार कितनों के साथ ऐसे अवसर आए, पर क्या मजाल, वह कभी चूका
हो।
समाज के तथाकथित निचले स्तर का वह प्राणी निश्चय ही अनगढ़ और अनपढ़ था, पर
उसका मस्तिष्क उर्वर था। उस उर्वरता का उपयोग वह शिव और शैतान दोनों की
साधना के लिए करता था। वह किसी का होना जानता था, तो किसी को परेशान करना
भी जानता था और करता था। वह अपना मूल्य चाहता था। वह मनुष्य जो था! पर ऐसा
मनुष्य, जो सबसे पहले काम करने में विश्वास करता है। वह बोलता रहता, चलता
रहता, पर काम उसका कभी न रुकता-सबेरे, शाम, तपती हुई दोपहर, रात के दो बजे
का निविड़ अन्धकार, वर्षा, शीत, ग्रीष्म, कभी भी, बावजूद उसके बड़बड़ाने के,
उस पर विश्वास किया जा सकता था। हड़तालों, प्रदर्शनों और अधिकारों को इस
युग में आज न जाने क्यों, उस अनपढ़ अकिंचन प्राणी की याद करके मन भर-भर आता
है। उसकी हँसी छाती में उफन-उफन उठती है। उसकी अनगढ़ मूर्ति आंखों में
उभर-उभर आती है। वह चोर हो सकता है, उसे लालची भी कहा जा सकता हे; फिर भी
उसमें ऐसा कुछ था, जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है। आज वही 'ऐसा कुछ' खो गया
है-खोता जा रहा है।
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