और, वह यह जा, वह जा। इधर बाबू जी यह उबले, वह उफने! गोपी एक अद्भुत इनसान
था। प्रसन्न हो, तो प्राण अर्पण कर दे-अप्रसन्न हो, तो जन्म-जन्म का
शत्रु। कोई दो शब्द प्यार के बोल दे, दो पैसे की चीज हाथ पर धर दे-बस,
गोपी उसी का। एक बार माता जी बीमार पड़ी। दवा के लिए किसी छाल या बूटी की
आवश्यकता थी। वह आसानी से प्राप्य नहीं थी। लेकिन गोपी ने, जब कहा, तभी
लाकर दी। कष्ट की कभी चिन्ता नहीं की, कह देता था-''बिशनू की मां। तेरे
लिए जान भी हाजिर है।''
उसकी जान न जाने किस-किस के लिए हाजिर रहती थी। वे आजकल के से दिन नहीं
थे। छुट्टियों में भी बाबू लोगों को दफ्तर जाना होता था। कभी न जाते, तो
बुलावा आ जाता। एक रविवार को मैंने भी निश्चय किया कि आज नहीं जाऊंगा,
कहानी लिखूंगा। लेकिन जैसे ही पहला अक्षर लिखा, गोपी ने आवाज
दी-''बाबूजी!''
मैं क्रुद्ध कम्पित बोला-''क्या है?
"साहब ने सलाम दी है।''
''पर आज तो रविवार है।''
वह हँस पड़ा-''बाबू जी, आप भी कैसी बात करते हैं। छुट्टी तो रजिस्टर में
लिखने के लिए होती है। उठिए, साहब को अभी जाना है।'' मैंने तीव्र स्वर में
कहा-''जाकर कह दो, मैं नहीं आऊंगा।''
तब तक वह आराम से चारपाई पर बैठ चुका था। मेरी बात अनसुनी करके उसने मेरी
मां से कहा-''बिशनू की मां! लारी, एक रोटी।''
मां बोली-''एक क्यों, पेट भर खा।''
''बस एक, बिशनू की मां। पेट क्या रोटी से भरे है। वह तो, बाउली प्यार की
बात से भरे है। तू दो बोल मीठे बोल दे है, बस भरा रहू हूं।'' और फिर,
जल्दी-जल्दी रोटी खाकर वह उठा। मेरे पास आया-''बाबूजी, आराम करो, साहब से
मैं निबट लूंगा।''
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