उस घटना को साल भर बीत चुका था। शोक थककर सो रहा था। पर सोई इन्द्रियां
जागने लगी थीं। वे पुनर्जीवन पाने को मचल रही थीं। आंखें अंधकार को चीरकर
बादलों में रंगीन लहरें देखना चाहती थीं। हृदय के यन्त्र में जान आ रही
थी। इधर जान आ रही थी, उधर बीना घबरा रही थी-इतना घबरा रही थी कि वह चाहती
थी, इस तरह जान आने से पहले वह खुद मर जाए। पर वह बेबस थी। यौवन उसे मरने
न देता था। काल भी अपनी भेंट ले निश्चिन्त हो चुका था। वह अब निर्द्वन्द्व
हो, बीना के अन्तर्द्वन्द्व का खेल देख रहा था। और, काल के साथ देख रहा था
गोपाल। अपना दुख भूल, वह बीना की व्यथा में घटा जा रहा था; क्योंकि वह
बेबस था। बेबस था, क्योंकि वह समाज का एक अंश था और समाज किसी का दुख
निवारण करने में सदा बेबस ही रहा है।
मां से गोपाल का दुख देखा न जाता था। दुख उन्हें बीना के लिए भी था, पर उस
दुख पर रो-पीट कर वे संतोष पा चुकी थीं। अभागिन के भाग्य को कोई क्या करे?
अब साल भर बीत चुका था। जिस बहू के भाग्य ने उनका बेटा उठा लिया हो, उस
बहू से उन्हें विशेष सरोकार न था। विधाता ने उसे विधवा बना दिया। अब कोई
क्या कर सकता है? पर उनका बेटा गोपाल? अभी उसकी आयु ही क्या थी? अट्ठाईस
वर्ष का सुन्दर युवक यों बैरागी बना फिरे, इसे वे सहन न कर सकती थीं। वे
फिर से उसकी आंखों में मुसकराहट देखना चाहती थीं-फिर से उसका घर बसाना
चाहती थीं, फिर से इस बुझे दीपक में लौ लगाना चाहती थीं। वे तो चार महीने
बाद से ही पुनर्विवाह की चर्चा करने लगी थीं, पर यह चर्चा चलते ही गोपाल
उठ कर चला जाता था। अब साल भर बीत चुका था और अब उनका धैर्य हताश हो रहा
था। मां अब उतावली हो रही थीं। शोक की भी एक सीमा होती है। अपने छोटे बेटे
के शोक को उन्होंने स्मृति के गाढ़तम अतल में दबा दिया और बड़ी बहू के
सम्बन्ध में उन्होंने ज्ञान से काम लिया-वह तो रानी-सी गई। भगवान की देन
थी, उसी ने ले लिया। अपना क्या चारा है? और, बीना के तो करम ही फूटे थे।
कर्म का भोग तो भोगना ही होता है। पर गोपाल? गोपाल के आगे तो दुनिया खड़ी
है! उसे कौन रोके है? मां के विचार से, शायद बेटों का कर्म भोग नहीं होता।
वह क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रहा है? कम आयु के सुन्दर विधुर के लिए
संसार में किस बात की कमी थी! छ: महीने भी न बीते थे कि कितने ही घरों से
मांगें आने लगी थीं। मां ने लड़कियां देखनी भी शुरू कर दी थीं। दो-चार
पसन्द भी आई थीं, पर सब बेकार था। उन्होंने लाख कहा, लाख समझाया, कसमें
दीं, रोई-पीटी, झल्लाई; पर गोपाल न मानता था। जैसे-जैसे अम्मा शादी का हठ
करती थीं, गोपाल का बैरागी रंग गाढ़ा पड़ता जाता था। अब उसने दाढ़ी भी बढ़ा ली
थी। बाल न कटवाता था। अच्छे कपड़े बक्सों में पड़े रो रहे थे। वह सादे कपड़ों
में ही सन्तुष्ट रहता। वह किसी भी मनोरंजन में सम्मिलित न होता। लोग
कहते-वह ऐसे रहता है, जैसे कोई विधवा हो। उसका हठयोगीपन उनकी समझ में न
आता था। शायद वह विधवा और विधुर के अन्तर को न समझ पाया। लोग कहते थे, यह
भी अजीब आदमी है। देखा तो यही गया है कि शोक शुरू में इनसान को राहु की
भांति सम्पूर्ण रूप से ग्रस लेता है, पर समय के साथ उसी तरह घट भी जाता
है, जैसे चन्द्र ग्रहण धीरे-धीरे हट जाता है। पर यहां तो मामला ही उल्टा
था। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते थे, गोपाल का शोक भयंकर होता जाता था।
उसका जीवन केवल एक कार्यक्रम सा था, जिसके अनुसार रात बीत जाती, सुबह होती
वह काम पर जाता। शाम होती-वह घर आता और फिर रात हो जाती। खाली समय में वह
या तो कुछ पढ़ता रहता या खोई आंखों से एक ही ओर घंटों बैठ ऐसे देखता, जैसे
उसके आगे एक अंधकार का परदा हो, जिसके पीछे कुछ ऐसा छिपा है, जिसे वह पा
लेना चाहता है। उसके इस हठयोग में भजन-पूजन सम्मिलित न था। वह अपनी वेदना
किसी से न कहता। जब कोई उसके पास आता, तो वह सभ्यता से बातें करता, उसका
एक उदासीनता के साथ स्वागत भी करता। पर जब कभी कोई उससे पुनर्विवाह की बात
करता, तो वह चुप हो जाता। और, जब वह चुप हो जाता, तो ऐसा लगता, जैसे उसके
अन्तरतम की हजारों जबानें कुछ बोलने को मचल रही हैं और वह उनको वश में
करने के लिए एक युद्ध लड़ रहा है। हाथों की मुट्ठियां बंध जातीं, आंखें लाल
हो जातीं, दांत भिंच जाते और वह अपने आपको समेटे बैठा रहता। उसके इस रौद्र
रूप कों देख, लोग घबरा जाते और बातों का विषय बदल कर घर चले जाते। कभी-कभी
बीना के आगे, अम्मा अपनी पड़ोसिन को गोपाल के विवाह की चर्चा करने को
उकसाती, तो गोपाल एक बार बीना की ओर देखकर कांप जाता और फटी आंखों से मां
की ओर देख बड़ी जोर से हँसता। वह कर्कश हँसी प्रलय के समान भयंकर होती। उस
हँसी के आगे मां की आंखें भर आतीं, पड़ोसिन का दिल दहल जाता
और बीना का पीला मुख सफेद पड़ जाता। वह गोपाल की आंखों का उन्माद देख कांप
जाती। एक हँसी में इतनी पीड़ा! इतनी वेदना!! इतना उन्माद!!! गोपाल तब बीना
की दशा देख, अपने को कुछ संभालता, फिर साधारणता लाते हुए बीना को
सान्त्वना देने के खयाल से कोई और बात छेड़ देता, फिर उठकर चला जाता।
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