अब तो ढाबेवाले के धीरज का बांध टूट गया। स्पष्ट शब्दों में उसने कहा-''अब
रोटी नहीं मिलेगी!''
''क्यों भाई?''
''एक थाली में आठ से अधिक रोटियां नहीं होतीं।''
''लेकिन हमारी बात तो खुराक की तय हुई थी।''
ढाबेवाला उठ खड़ा हुआ-''कुछ भी हो, अब और नहीं दूंगा।''
गोपी बैठा रहा-''मैं भी खुराक पूरी करके उठूंगा।''
बात बढ़ी, भीड़ बड़ी। एक सज्जन ने पूछा-''कहां के रहने वाले हो, भाई?''
गोपी ने अपनी ठेठ बोली में जवाब दिया-''हरियाणे का गुज्जर सूं।''
तब वह सज्जन ठहाका मारकर हँसे, ढाबेवाले से कहा-''पूछ-कर सौदा किया करो।
हरियाने के लोग हमारी तरह पांच-छ: फुलके नहीं खाते, खुराक खाते हैं। अब तक
दुनिया को लुटता रहा है, आज लुट कर भी देख। चल, अब खिला अपने ताऊ को।''
वह काम कितना करता था, इसकी कल्पना भी आज कोई नहीं कर सकता। सवेरे आठ बजे
दफ्तर पहुंचता, तो वहीं रात के आठ बज जाते। फिर बड़े बाबू के घर का काम,
छोटे बाबुओं के खाने की व्यवस्था। ''ओ गोपी? गोपी, कहां गया रे?'' ''ओ
गोपी, दूध लाया?'' ''गोपी, यह ले जा।'' ''गोपी, वह ला।'' ''गोपी, खाना ले
आया?'' ''अरे गोपी, आज घर काम करूंगा। बस्ता ले जाना।...''
गोपी कभी पूरी बात न सुनता, लेकिन क्या मजाल कि कभी काम में चूक हो जाए।
यूं मन में आता, तो बैठे-बैठे सो जाता, फिर भले ही तूफान उठे या भूकम्प
आए, उसे चिन्ता नहीं। फिर एकाएक 'हरे राम, हरे राम' करता हुआ ऐसे उठता,
जैसे बड़ी देर से काम कर रहा है। इतनी तेजी से कागज इधर-उधर करता
कि फिर भूकम्प आ जाता। इसकी शिकायत, उसकी निन्दा, उस बाबू ने समय पर काम
नहीं किया, उस ठेकेदार ने इस बार माल बहुत खराब दिया है और बाबू जी...बाबू
जी परेशान, झुंझला रहे हैं; लेकिन गोपी है कि बोले चला जा रहा है, बोले
चला जा रहा है।
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