कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
गोपी ने पूछा-''कब मिले?''
''मैं कहता हूं, मुझसे मिले। जरूरी काम है।''
''जी हां, मैं अभी जाता हूं, पर वह कब आए?''
कई बार इस प्रश्न की पुनरावृत्ति होने पर बाबू चीख कर बोले-''कम्बख्त!
सुनता नहीं? बारह बजे मिले?''
गोपी लाठी उठा कर बाहर की ओर लपका ही था कि लौट पड़ा। घड़ी में तब चार बजे
थे। उसने बड़े बाबू से पूछा-''जी, रात बारह बजे आने को कहूं न?
यह सुनकर शून्यचित्त बड़े बाबू की क्षुब्धता यदि सीमा को पार कर जाती, तो
स्वाभाविक ही था; पर ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने जब आग्नेय नेत्रों से गोपी की
ओर देखा, तो वह पूर्ण शांत-संयत खड़ा
था। न जाने क्या हुआ कि बड़े बाबू मुसकरा पड़े, बोले-''जा-जा, कल दिन में
बारह बजे आने को कहना।''
कभी-कभी यह हँसी अनायास ही बड़ी निर्दय हो उठती। शायद पहले महायुद्ध के
दौरान की बात है। बड़े बाबू की माता जी का देहान्त होने पर वह उनके फूल
लेकर गंगा जी गया था। सब धार्मिक कृत्य हो जाने पर उसने एक भोजनालय खोज
निकाला। उन दिनों चवन्नी खुराक का नियम था, लेकिन कुछ देर बाद ढाबेवाले ने
पाया कि यह नया ग्राहक तो उस सीमा को कभी का पार कर चुका है। उसने हाथ
खींचना शुरू किया-दाल मांगे तो ना, साग मांगे तो ना, चटनी मांगे तो ना।
आखिर गोपी ने कहा-''रोटी तो है?''
ढाबेवाले ने कहा-''ठहरो अभी लाते हैं।''
इधर गोपी था कि पूर्ण शान्त-तनिक मैल नहीं, तनिक व्यग्रता नहीं? नमक के
साथ ही पच्चीसवीं रोटी को उदरस्थ किया और कहा-''रोटी लाओ, भाई।''
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