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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


निमिष-मात्र में सारा आंगन निस्तब्ध हो आया। अब माल के नामंजूर होने में कोई सन्देह नहीं। कर्नल उसी आवेश में उन फलियों को बूढ़े ठेकेदार की नाक के पास ले गया और कड़क कर बोला-''हम पूछटा, यह सब क्या है?

बूढ़ा ठेकेदार कांपने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पा रहा था। कर्नल ने अपना प्रश्न फिर दोहराया। तभी सहसा गोपी बोल उठा-''हुजूर! यह चने की मां है।''

एक साथ सबके नयन उसकी ओर उठ गए। कन्धे पर दुपट्टा डाले, हाथ में लकड़ी लिए, वह मुसकराता हुआ खड़ा था। कर्नल उसकी ओर देख रहा है, यह जानकर उसने बड़े अदब से कहा-''हुजूर, यह चने की मां है। इन्हीं के पेट से चने पैदा होते हैं।...''

आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। कर्नल ठहाका मारकर हंस पड़ा, बोला-''ठीक-ठीक, तुम ठीक बोला।''

और, वह आगे बढ़ गया।
अक्षर ज्ञान से आदमी पढ़ा-लिखा माना जाता है, पर सहज ज्ञान से आदमी बुद्धिमान बनता है। गोपी की सहज बुद्धि अकसर पढ़े-लिखों को पछाड़ देती थी। वह हँसता भी खूब था, ऐसी खुरदरी हँसी कि पेंचकस की तरह चीरती चली जाए, पर क्या मजाल कि कोई रो सके। सन् 1931-32 के बाद दफ्तर में अकसर तूफान मचा रहता। काम बहुत, आदमी कम-सो, सब उत्तेजित। इस उत्तेजना में क्रमश: ऊपर वाला नीचे वाले को, नीचे वाला और नीचे वाले को अनायास ही पीसने को आतुर हो उठता। इन्हीं दिनों एक दिन बड़े बाबू तीव्र गति से साहब के पास से आए और गोपी से बोले-''...बढ़ई से कहो कि मुझसे मिले।''

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