कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
''लड़की सदा यही मनाती रहे कि मेरा बाप जितनी देर बैठा रहे, उतना ही अच्छा
है। कुछ न कुछ मिलता ही रहेगा।''
उसके तर्क सदा ही मौलिक होते थे। एक दिन वर्षा की ऋतु में मैं हवा-पानी का
तार तैयार करने में लगा था कि उसने पूछा-''क्यों बाबूजी, कुछ बारिश का डौल
है?''
मैंने कहा-''आज तो आंधी के आसार हैं।''
वह हँस पड़ा-''भगवान भी बड़े हंसोड़ हैं। पानी की चाहना है और आंधी भेज रहे
हैं।
फिर एक क्षण रुक कर कहा-''बाबूजी, हम करम ही ऐसे करे हैं। चोरी जारी...और
बाबूजी, आपने कुछ सुना?''
''क्या?''
''मंगला है न? अपने दफ्तर में काम कर चुका है। पांच सौ रुपए में अपनी
छोकरी बेच आया। ऐसे जुल्म होने लगे हैं। तब भगवान न्याय क्यों न करें...''
मैंने कहा-''लेकिन गोपी, सभी पापी थोड़े हैं?''
गोपी बोला-''ना हों, गेहूं के साथ घुन तो पिस्से ही हैं।''
यही क्यों, एक बार ठेकेदार ने चना देने का ठेका दिया था। बड़ा ठेका था और
उन दिनों आसानी से किसी की आंखों में धूल भी नहीं झोंकी जा सकती
थी। स्वयं सबसे बड़ा अफसर माल की जांच-पड़ताल करता था। इसलिए जब ठेकेदार ने
फार्म के आंगन में चने के ढेर लगवा दिए, तब कर्नल पूरे अमले के साथ
निरीक्षण करने आया। कई क्षण वह घोड़े पर चढ़ा इधर-उधर घूमता रहा, फिर एकाएक
बोल उठा-''हम यह माल नहीं लेगा।''
जैसे वज्रपात हुआ। बूढ़े ठेकेदार के काटो, तो खून नहीं। गिड़गिड़ाकर
बोला-''हुजूर...''
''हम कुछ नहीं जानटा।'' कहते-कहते वह घोड़े पर से उतरा और एक ढेर में से
कुछ फलियां उठाकर बोला-''हमने चना मांगा ठा, यह कूड़ा नहीं! यह क्या है?
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