कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
एकाएक देखने में वह एक छोटा सा प्रभावहीन व्यक्ति था। न शरीर में ओज, न वाणी में प्रखरता। पर वास्तव में, स्थिति बिल्कुल विपरीत थी। गेहुंए वर्ण की नाटी छरहरी देह, पतला मुख, मिचमिची आंखें, बिल्ली की सी मूंछें और वैसी ही गतिविधि इस क्षण इधर ऊंघ रहा है, तो उस क्षण उधर दौड़ रहा है। वाचाल ऐसा कि नींद में भी क्रियाशील। घुटनों तक की धोती; सिर पर पतला सा मुडासा, जो अब खुला अब बंधा; बदन पर कुरता या कमीज; कन्धे पर गमछा, धोती या चादर-शोभा के लिए इतना नहीं, जितना घर जाते वक्त कुछ न कुछ ले जाने के लिए-और कुछ नहीं, तो घास, बुरादा या मिट्टी ही सही। हाथ में वह लकड़ी अवश्य रखता, क्योंकि उसे कुत्तों से डर लगता था। विशेष अवसरों पर सरकारी लम्बा कोट पहनता और पेटी भी बांधता, जिससे कुछ लम्बा लगने लगता।
वह जाति का गूजर था और इसी नाते छोटी-बड़ी अनेक चोरियों के सम्बन्ध में थाने में उसकी पेशी होती रहती, और जैसा कि सदा से होता आया है, वह पिटता भी; परन्तु तत्कालीन पंजाब की वह खूंख्वार पुलिस उसे एक बार भी अपने चंगुल में नहीं फंसा सकी-शायद प्रमाण के अभाव के कारण, शायद बड़े बाबू की दया के कारण या फिर शायद जेब गर्म हो जाने के कारण। यूं उसने कई बार चोरी का इकबाल भी किया था, पर अपनी निराली अदा से। वह ट्रेड यूनियनों का युग नहीं था, फिर भी चपरासी लोग मिल बैठते और तम्बाकू के धुएं के साथ-साथ अपने दुख-दर्द को उड़ाने की चेष्टा करते। ऐसी ही एक सभा में एक दिन उसके साथी ने कहा-''और रही चोरी की बात। किसी के घर डाका मारने कौन जावे है? यूं खेत में से घास-पात तुम भी लाओ ही हो।'' गोपी तुरन्त अपनी ठेठ हरियानवी भाषा में बोला-''हां, लाऊं सूं। इसमें लुकाण की के बात सै और लाऊं कोना। दिके बाबू लोग रोज जेब भर के नांवा लावे सै। सच कहूं सूं। सच कहूं सूं, तनखा बाट्टण की बेरा अंगूठा पहलो ही लगवा लैं और पैसे देण के वक्त किसी-किसी गरीब कू ऐसा दुत्कारे, ऐसा दुत्कारे कि बेचारा मुंह ने ताकता रह जा सै। इस सत्यानासी राज में कम अन्धेर ना सै, पर बेमाता ने अंग्रेज सरकार की तकदीर में न जाणे के लिख दिया सै, दिन दूणी रात चौगुणी तरक्की करे जा सै। गांधी बाबा की कुछ भी पार न बसावै।''
वह जीवन भर चपरासी रहा। बीसवीं सदी की दूसरी दशाब्दी में शायद तीन-चार रुपए माहवार पर वह नौकर हुआ था और जब उसे अवकाश दिया गया, तो मंहगाई भत्ता मिला कर लगभग बत्तीस-तैंतीस रुपये पाता था। लेकिन इसी आमदनी में उसने लड़की गोद ली और मुंह-छूट घी, बूरा खिला कर उसके हाथ पीले किए। उसके कोई औलाद नहीं थी। लोगों ने आपत्ति की-''दुनिया लड़का गोद लेती है, जिससे नाम चले; पर तुम नई चाल चल रहे हो।''
उसने जवाब दिया-''देखो जी! नाम चलता किसने देखा है! लड़के साले की निगाह माल पर रहे है कि कब बाप मरे और मैं मालिक बनूं।''
''और लड़की?''
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