कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
दूल्हा अपनी पत्नी को गौना कराकर ले जा रहा था। वह सैयद के राज्य के बाहर
दक्षिण में किसी जगह का रहने वाला था। उसे सैयद के अत्याचारों का पता नहीं
था, नहीं तो ऐसी गलती हरगिज नहीं करता। अपने साथियों से उसने सलाह की। यही
मालूम हुआ कि लड़ते हुए मरकर भी हम अपने सम्मान और धर्म की रक्षा नहीं कर
सकेंगे। अब तक सैयद के और कितने ही प्यादे आकर डोली को घेर चुके थे। तरुण
अपने ब्राह्मणत्व के सम्मान को अपने प्राणों से भी बढ़ कर समझता था। एक रात
अपनी पत्नी को सैयद के कोट में रख कर वह फिर उसे ले, कौन मुंह से अपने घर
जाएगा? दूसरे चाहे जहां भेद न भी खोलें, लेकिन उसका मन कैसे इस अपमान को
जीवन-भर के लिए सह सकेगा? उसने प्यादों से कहा-
''हम आप लोगों के अधीन हैं। सैयद साहब से लड़ने की न हमारे पास शक्ति है और
न हिम्मत। राजा लखनदेव उनसे लड़ कर सफल नहीं हुए, तो हमारी क्या
मजाल है। हम डोले को कोट में भेजने के लिए तैयार हैं। पर, नई दुलहिन
है-उसकों कुछ पता नहीं है। वह अकेली जाकर घबरा उठेगी और न जाने फिर क्या
कर बैठेगी। इसलिए मुझे उसे समझा लेने भर की छुट्टी दीजिए।''
सैयद के आदमियों को इसमें क्या एतराज हो सकता था। वे डोले के पास से हट गए
और ब्राह्मण तरुण को अपनी पत्नी से बात करने की छुट्टी दे दी। डोली के
पर्दे में बैठकर तरुण ने अपनी पत्नी को सारी स्थिति बतलाई और कहा कि
तुम्हारे कोट में जाने से पहले मैं अपने पेट में कटार मार लेना चाहता हूँ।
पत्नी घबराई। सैयद के कोट में एक रात रह कर वह अपने पति के साथ सती होने
के लायक भी तो नहीं रह जाएगी। उसने आंसू बहाते हुए, पर दृढ़ता के साथ
कहा-''आपका कहना ठीक है। धर्म खो कर अपमान ग्रहने से मर जाना अच्छा है। पर
मुझे धर्म खोने के लिए क्यों छोड़ते हो। पहले मुझे खत्म कर दो और फिर अपने
आपको कटार मार लो।''
इतनी बातचीत के बाद पत्नी की छाती में कटार घुसेड़ कर, उसी खूनी कटार को
अपनी छाती में घुसेड़ने में यद्यपि बहुत देर नहीं लगी, पर उसके बाद जब
ब्राह्मण को देर तक आते नहीं देखा, तो प्यादों ने डोली के पास पहुंच कर
पुकारा। कोई जवाब न पा पर्दे को हटाया, तो देखा, वहां दोनों मरे पड़े
हैं-उनकी छाती से अब भी खून की धार बह रही है।
सैयद के कोट में डोला नहीं जा सका। कर्नहट के लोगों में एक विचित्र
उत्तेजना फैली। हिन्दू आपस में इसके लिए इतना अफसोस कर रहे थे,
जैसे उनके घर का आदमी मारा गया हो। वे दोनों तरुणों की
धर्मनिष्ठा की प्रशंसा कर रहे थे। मुर्दों से सैयद का कोई काम नहीं था।
कर्नहट के लोगों ने दोनों की लाशें एक चिता पर मूक संवेदना और सम्मान के
साथ जला दीं। उनका आत्मोत्सर्ग ऐसा नहीं था कि भुलाया जाता। किसी ने
दलसागर के उसी स्थान पर मिट्टी की दो छोटी-छोटी पिंडियां बना कर रख दीं,
जो प्रति बरसात में पिघल कर विकृत हो जातीं, और बरसात के अन्त में कोई
अज्ञात हाथ उन्हें फिर बना देता। सैयद के समय तक किसी की हिम्मत
नहीं हुई, कि वहां ऐसी पिंडियां बनाता, जो एक बरसात से अधिक ठहर सकतीं।
सैयद मर गया, उसके वंशज भी कर्नहट के कोट में नहीं रह गए, तब किसी ने
मिट्टी की दो बड़ी पिंडियां वरम और बरमाइन के नाम से बनवा दीं।
पहले भी लुक-छिपकर कोई मनौती के लिए दूध की धार दे जाता था-अब वह खुल कर
चढ़ने लगी। कितनी ही सर्दियों बाद किसी ने उन पिंडियों के पास
बरगद का पौधा लगा दिया, जो बढ़ कर एक बड़ वृक्ष के रूप में परिणत
हो गया।
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