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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


कर्नहट में अब भी पुराने जमाने की कितनी ही पोखर-पोखरियां हैं, जिनमें से बहुतों का रूप इतना बदल गया है कि आज उनको देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि पहले वे किसी दूसरे ही भव्य रूप में रहे होंगे। बड़ी पोखरी, किसी आदमी की खुदाई हुई किसी छोटी पोखरी-जैसी नहीं, बल्कि छोटी झील जैसी मालूम होती है। उसके अतीत के गौरव का कहीं कोई पता नहीं है, लेकिन धरातल से कुछ हाथ नीचे, सैकड़ों गज तक, मौर्य कालीन ईंटों की चिनाई चली गई है। सैयद के कोट से पूर्व इसी तरह का एक पोखरा दलसागर है। दलसागर का अर्थ है, सेना के लिए बनवाया गया कोई विशाल पोखरा। सागर छोटे या मंझोले पोखरे का नाम नहीं होता। आजकल के उसके छोटे से आकार को देखकर यह नाम मजाक सा मालूम होता है। साधारण सागरों को तो छोड़िए, इस दलसागर का पानी भी वर्षा के बीतने के कुछ ही हफ्तों बाद सूख जाता है। पर सैयद अकरम के समय दलसागर काफी बड़ा पोखरा था, जिसे लखनदेव के किसी पूर्वज ने अपनी कीर्ति अमर करने के लिए ही नहीं बल्कि घोड़े-हाथियों की सेना के उपयोग के लिए खुदवाया था।

गर्मी का महीना था, जिसमें आदमी-विशेषकर यात्री-को सबसे प्रिय होता है जलाशय और उसका जल। उत्तर में बङुउर-भद्रपुर बड़ौरा-से एक ढंकी डोली के साथ-साथ कुछ आदमी दक्षिण की ओर जाते दिखाई पड़े। दोपहरी इतनी तपी हुई थी कि वे दलसागर के करीब पहुंचकर उधर मुड़ने से अपने को रोक नहीं सके। कहारों की प्यास से बुरी हालत थी। शायद वे लोग काफी दूर से आ रहे थे और काफी दूर जाने वाले थे। दलसागर के पश्चिम वाले घाट पर कहारों ने डोली रख दी। साथ के सरदार भी वहीं उतर पड़े। आम की छाया सिर पर बहुत प्रिय लगती है। दलसागर में उतर, कुछ लोगों ने हाथ-मुंह धोया और कुछ ने स्नान भी किया। खा-पीकर दोपहरी बिताकर वे वहां से जाना चाहते थे। पर अभी वे खाने में हाथ ही लगा रहे थे कि  उनके पास चार प्यादे पहुंचे। आते ही उन्होंने कहारों से कहा-''डोली को कोट में ले चलो।'' उसके बाद ही हाट से निकलकर कुछ और आदमी भी आ गए। हाट दलसागर के पास तक बसी हुई थी। उन्होंने भी कहा-''हर डोले को एक रात के लिए कोट में जाना पड़ता है। यही सैयद साहब का हुक्म है।'' ऐसा कहने वाले हिन्दू थे। उनमें से एक ने मुखिया सरदार (जो खुद वर था) को अलग ले जाकर समझाया-''आपको इधर से नहीं आना चाहिए था। क्या सैयद के अत्याचारों का आपको पता नहीं था? अब आ गए, तो इसके सिवा कोई चारा नहीं है। अभी और भी सिपाही आ रहे हैं। हथियार लेकर इनका मुकाबला नहीं किया जा सकता। सैयद राज्य के सभी हिन्दू ऐसा करके ही अपने प्राणों की रक्षा कर रहे हैं। आगे आपकी जो मर्जी।''

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