सैयद अकरम ने सिसवा से कर्नहट को अधिक पसन्द किया, और लखनदेव के कोट में
ही रहने का उसने निश्चय किया।
कर्नहट में तन्तुवायों, धनकों-जैसी शिल्पी जातियों की संख्या बहुत नहीं
थी, पर चूड़ी बनाने वाले चूड़ीहार और दर्जी काफी संख्या में यहां रहते थे।
कोइरी, सोनार, लोहार, बढ़ई जैसे लोग भी थे। यद्यपि
ये बड़ी जातियों की दृष्टि में नीच थे, पर उतने नहीं, जितने कि तन्तुवाय,
चूड़ीहार, आदि। सैयद अकरम के कर्नहट में आते ही वहां के चूड़ीहारों,
सूचीहारों, आदि की अपनी जातीय पंचायत बैठी। वाराणसी से आए उनके जाति
मुखियों ने तुर्कों के धर्म, शासन और शक्ति की महिमा बतलाई और यह यों कि
हमारे वाराणसी के सारे जाति-भाई अब तुर्क धर्म में दीक्षित हो गए हैं,
इसलिए तुम्हें भी उसी को स्वीकार करना चाहिए। शताब्दियों से जिस धर्म को
वे मानते आए थे, उसे एक दिन में वे कैसे छोड़ सकते थे? उनको मनुष्य से भी
ज्यादा अपने देवताओं का डर था। मनुष्यों में तो वे जानते ही थे कि सबसे
सबल तुर्क है, और अपनी जाति में कोई उंगली तभी उठा सकता है, जबकि वह तुर्क
न हो और अपनी बहुसंख्यक जाति का बल उसे प्राप्त हो। उनके जिन मन्दिरों में
वे भीतर या बाहर से पूजा करने जाते थे, उनमें से किसी एक भी मूर्ति को
तुर्कों ने खण्डित किए बिना नहीं रखा था। मूर्तियों को खण्डित करके वे
दिखलाना चाहते थे कि तुम्हारे देवता झूठे हैं, और केवल हमारे अल्लाह की
तलवार ही सच्ची है। कर्नहट से विहार के महाकाल अब टुकड़े-टुकड़े थे।
शिल्पकारों में काफी संख्या बौद्धों की थी-और दूसरी बड़ी-छोटी जातियों में
भी बौद्ध धर्म वालों की कमी नहीं थी, यद्यपि उस समय किसी जाति के बारे में
नहीं कहा जा सकता था कि वह एकान्तत: बुद्ध या ब्राह्मणों की अनुयायी है।
सहस्र वर्ष पहले जिन देव-मूर्तियों की स्थापना हुई थी, वे भी सैयद अकरम की
देहली में पड़ी हुई थीं, जिन पर पांव रख कर लोग भीतर आते-जाते थे। देवता
इतने निकम्मे साबित होंगे, इसका किसी को खयाल नहीं था। सो, बहुत दिन नहीं
लगे, जब कर्नहट के चूड़ीहारों, सूचिकारों और धुनियों ने तुर्क धर्म को अपनी
पंचायत के निर्णय के अनुसार स्वीकार किया। उनके फिर इस्लाम से हट जाने का
डर नहीं हो सकता था। जब गोमांस उनके मुंह में पड़ चुका, तो कौन उन्हें
हिन्दू मानने के लिये तैयार था? सैयद अकरम ने गोमांस के कच्चे टुकड़े मंगाए
और उनको हरेक घर के मुखिया के मुंह में एक-एक क्षण रख कर हटा लिया। अब
शिल्पकार सदा के लिए हिन्दुओं के विरोधी और विदेश से आए तुर्क शासकों के
अत्यन्त फरमाबरदार बन गए।
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