कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
सिसवा राजधानी में तन्तुवायों की काफी संख्या थी। उनमें से कुछ के
रिश्ते-नाते वाराणसी में भी थे। यद्यपि वहां वाले अब तुर्क हो चुके थे,
लेकिन अपने साले-बहनोइयों, नानों-मामों, सगी बहनों, बुआओं को इतनी जल्दी
कैसे भूल जाते? जाति ने नियम बता दिया था कि तुर्क हो गए आदमियों को
बहिष्कृत समझा जाए। उनके साथ खान-पान करने वाला भी तुर्क माना जाएगा, पर
इस नियम का पालन अभी उतनी कड़ाई से नहीं हो रहा था। कुछ तुर्क बने
तन्तुवायों को तो तुर्क शासक अब भी हिन्दू के रूप में रखकर उनका उपयोग
करना चाहते थे। सिसवा में ऐसे भेदिए तन्तुवाय पहुंच चुके थे। वे तुर्क
शासकों की उदारता और समानता का भीतर ही भीतर कितने ही सालों से प्रचार कर
रहे थे-''तुर्क हो जाने पर हमारे अगुवा सिपहसालार के साथ एक दस्तरखान पर
खाना खाते हैं-एक पांती में पूजा करते हैं। हमारी लड़कियों को ऊंचे से ऊंचा
तुर्क अधिकारी अपनी बीवी बनाने के लिए तैयार है!'' आदि-आदि।
प्रतिरक्षा केवल ईंटों और दीवारों, तीरों और तलवारों से नहीं होती-उसके
लिए आदमियों की भी ठोस ईंटें चाहिए। सिसवा की कितनी ही ईंटें खिसक चुकी
थीं। तुर्कों के भेदिए अपने काम में सफल हो चुके थे। दुर्ग के भीतर रक्षा
का कहां कैसे प्रबन्ध है और क्या हो रहा है, इसकी एक-एक बात दुश्मन के पास
पहुंच रही थी। सैयद अकरम को बहुत समय तक बत्स-बच्छवल्ली (बछबल) में
प्रतिरक्षा नहीं करनी पड़ी। एक अंधेरी रात को थोड़े से तुर्क
सैनिक नगर के भीतर के अपने पक्षपाती तन्तुवायों की सहायता से प्राचीर फांद
कर भीतर घुसने में सफल हुए। उनकी संख्या शत्रुओं के सामने कुछ भी नहीं थी,
लेकिन रात के अंधेरे में वहां संख्या गिनने वाला कौन था? उन्होंने उत्तरी
फाटक पर पहले अधिकार कर उसे खोल दिया। यह कहने की आवश्यकता नहीं
कि उस रात को सिसवा वाले घास-मूली की तरह काटे गए। कौन सैनिक है और कौन
असैनिक, यह जानने की किसी को फुर्सत नहीं थी। सुबह होने के पहले सिसवा
वालों का प्रतिरोध बहुत निर्बल रह गया था। सारी तुर्क सेना गढ़ के भीतर
पहुंच चुकी थी। राजप्रासाद और धनियों के घरों को लूट कर उन्होंने बहुत सा
धन इकट्ठा कर लिया और जिन घरों से कुछ भी प्रतिरोध हुआ, उनमें आग लगा दी।
धन लूटने के साथ-साथ उन्होंने सिसवा की सुन्दरियों को भी बड़ी संख्या में
जमा कर लिया। पर सैयद अकरम को यह सब देखकर भी उतनी प्रसन्नता नहीं हुई,
क्योंकि मरे हुओं में लखनदेव की लाश का कहीं पता नहीं था। लखनदेव अब भी
जीवित है! वह साधारण शत्रु नहीं था। यद्यपि उसको उसने सालों तक परेशान
नहीं किया, लेकिन उसका युद्ध का कौशल और सैनिकों का बल नगण्य नहीं था।
जिन्होंने गढ़ के भीतर घुसने में सैयद अकरम की मदद की थी, उनसे लखनदेव की
कोई बात छिपी नहीं थी। पता लगा, वह अपने कर्नहट के प्रासाद में जाकर
मुकाबला करने की तैयारी कर रहा है। सैयद ने अपने छोटे भाई मकरम को कुछ
सैनिक देकर गढ़ में छोड़ दिया और स्वयं कर्नहट की ओर बढ़ा। वह तो राजधानी का
ही एक भाग था। जाने में देर क्या लगती? कर्नहट को भी लखनदेव ने एक कोट का
रूप दे रखा था, जहां बचे-खुचे आदमियों को साथ लेकर वह तैयारी कर रहा था।
जब सिसवा का गढ़ मुकाबले में ठहर नहीं सका, तो यह क्या ठहरता? इस बार लड़ाई
दिन में हुई और साठ साला लखनदेव ने जिस बहादुरी का परिचय दिया, उससे देवता
भी ईर्ष्या कर सकते हैं-लखनदेव को सिर्फ इतनी ही सफलता मिली।
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