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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


(2)


तुर्क सिपहसालार सैयद अकरम बनारस से उत्तर की ओर अपने सवारों को लेकर चला। उसकी ही कृपा पर अपेक्षाकृत शान्त इस इलाके की लूट से जितना मिल सकता था, उतना भेंट से कहीं मिलता? सिपहसालार के सैनिक भी चुपचाप मक्खी मारने के लिए तैयार नहीं थे-उन्हें भी लूट का धन चाहिए था। तेरहवीं सदी के आरम्भ के तुर्क सैनिकों का यह मनोभाव नहीं था, बल्कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के अंग्रेज सैनिक भी लूट के धन के उतने ही इच्छुक थे। क्लाइव, हेस्टिंग्स और उनके योद्धा ही नहीं, बल्कि बहुत पीछे सिन्ध को विजय करने वाले जनरल से सिपाही तक लूट में अपने को हकदार समझते थे। उटरम की लुट से तीन हजार पौंड मिले थे, यद्यपि अब लड़ाई का उद्देश्य लूट कहने में संकोच किया जाता था। सिपहसालार सैयद अकरम और उनके स्वामी को इसे छिपाने की जरूरत नहीं थी। माल-गनीमत बिलकुल धर्मानुकूल अर्जित सम्पत्ति थी-साथ ही, काफिरों से मिलने से उसका महातम दूना था, काफिरों के साथ युद्ध करना फर्ज था।

सौ में से एक ही आदमी चाहे योद्धा हो, लेकिन हमारे वीरों ने कभी अपनी मां के दूध को नहीं लजाया। दुश्मन का मुकाबला उन्होंने डट कर किया; लेकिन आक्रमणकारी प्रतिरक्षक से कहीं अधिक बलवान सिद्ध होता है, क्योंकि युद्ध के स्थान और काल का निश्चय करना उसके हाथ में होता है। और भी कितने ही राज्यों की शिशपा (सिसवा) जैसी अपनी-अपनी छोटी-मोटी राजधानियां थीं। मालूम नहीं था कि सिपहसालार के घोड़ों की लगाम किधर खिंचेगी, इसीलिए सभी अपनी-अपनी रक्षा की तैयारी को छोड़ नहीं सकते थे; अतएव सब मिलकर लड़ नहीं सकते थे। लखनदेव राजधानी से पांच कोस दक्षिण डोभांव में अपने सैनिकों को लेकर प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन शत्रु प्रतिस्पर्धा के निश्चित किए हुए स्थानों पर क्यों युद्ध करने लगा? साथ ही, वह यह भी नहीं चाहता था कि इसका पता शत्रु को लग जाए। उसने डोभांव की ओर भी कुछ सवार भेजे, लेकिन अपनी मुख्य सेना को उसने उत्तर से बहुत आगे बढ़ाया। इसका पता जब लगा, तो लखनदेव को राजधानी के दुर्ग की सहायता लेने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया। सारे राज्य को लूटते-जलाते तुर्क सवार सिसवा के गढ़ पर पहुंचे। लखनदेव ने जम कर लड़ाई की। उनके योद्धा भली प्रकार जानते थे कि पराजय का मतलब सर्वनाश है-हाथ में पड़े किसी योद्धा पर तुर्क दया नहीं दिखाएंगे। उनके लिए काफिर की गर्दन तलवार के लिए ही है। दीन के लिए इससे बढ़कर अच्छी बलि कोई नहीं हो सकती। स्त्रियां उनके हाथ में पड़ कर भ्रष्ट और पराई हो जाएगी। पूर्वजों के समय से प्राणों की तरह जिस धर्म को वे मानते आए थे, उसका चिह्न भी तुर्क नहीं छोड़ेंगे। जो हालत वाराणसी के विश्वनाथ और कालभैरव के मन्दिरों की हुई, वहां के धर्म चक्र-प्रवर्तन (सारनाथ) के विहारों की हुई, वही यहां भी होगी।

पर उनकी सारी बहादुरी का कोई फल नहीं हुआ। वाराणसी के तन्तुवाय सारे के सारे तुर्क (मुसलमान) हो चुके थे। वे तुर्कों की तलवार को विजयी देखना चाहते थे। अपने मालिकों और सहधर्मियों के लिए वे सब कुछ करने को तैयार थे। उस समय लोगों के कपड़ों की सारी आवश्यकता इन्हीं तन्तुवायों के करघों से पूरी होती थी, इसलिए उनकी संख्या काफी होनी ही चाहिए थी। वाराणसी अज्ञात काल से अपने कपड़ों के लिए मशहूर था। वहां के तन्तुवाय अपने शिल्प में बड़े कुशल थे। उनके हाथों से बने रेशमी और सूती सुन्दर वस्त्र भारत में और भारत के बाहर भी अच्छे मूल्य पर बिकते थे। यद्यपि तन्तुवाय शूद्र-अर्धहरिजन-थे, किन्तु उनकी आर्थिक स्थिति दीन-हीन नहीं थी, बल्कि कितने तो काफी सम्पन्न थे। उनके आत्म-सम्मान को बड़ी ठेस लगती थी, जब वे देखते थे कि हम में से सम्पन्नत्तम और संस्कृततम पुरुष को भी बड़ी जाति वालों के सामने अपमानित होना पड़ता है। शायद इस अपमान को वे विधि का विधान ही समझते रहते, यदि तुर्कों के साथ तुर्क बन कर आए उनके पश्चिम के भाइयों ने उनकी आंखें न खोली होतीं। अब वे तन्तुवाय की जगह जुलाहा कहा जाना अधिक पसन्द करते थे।

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