कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
और, नानाविध समस्याओं के बीच में पड़ी रेवती अपने आप में गुम हो गई।
सहसा एक सुमधुर सम्बोधन को सुनकर रेवती चौंकी। पति उसके कन्धे पर हाथ रख
कर कह रहा था-''रेवा? तुम यहां बैठी क्या सोच रही हो, रानी?''
पति के उस स्पर्श से रेवती के शरीर में एक अपूर्व सिहरन जाग उठी, रोमकूपों
में विचित्र-सा स्पन्दन होने लगा और तुरन्त ही उस शिक्षिता नारी ने अपने
को संभाल कर धीमी मुस्कान के साथ कहा-''कुछ नहीं महाराज! आपने चाय पी
ली?''
''मेरी रानी, मुझे 'आप' नहीं, 'तुम' कहो-मुझे अपनत्व में खींच लो।...'चाय?
नहीं, मैं चाय पीता ही नहीं हूं। न रात में भोजन ही करता हूं। चाय के बदले
मैं शराब पीता हूं।''
रेवती ने कहा-''कोई बात नहीं। मैं आज सवेरे ही यह समझ गई थी।''
''तुम? लेकिन कैसे?
''तुम्हरे पास घण्टों खड़ी रही थी न।''
राजा ने आंखें गड़ा कर इस सुन्दरी नववधू की ओर देखा और सोचा ''कितनी
सुन्दर, कितनी मोहक आकृति है, सामने खड़ी हुई इस नारी की।'' और, एक
हृदयभेदी दीर्घश्वास राजा के हृदय को चीरता हुआ निकला।
रेवती के निकट उस दीर्घश्वास की कथा गुप्त न रही। वह पति को अपलक नेत्रों
से देखने लगी। उस दृष्टि के सामने राजा एक विचित्र परेशानी-सी अनुभव करने
लगा। रेवती ने बात को समझा। फिर अधरों पर गुलाल की-सी
लालिमा-भरी हँसी बटोर कर, पति का हाथ पकड़ कर, उसने उसे अपने पलंग पर
बैठाया। उसके स्पर्श से राजा का बार-बार सिहरना रेवती अनुभव करती रही।
रणधीर मुग्ध नेत्रों से रेवती को देखता रहा और किसी एक अज्ञात मुहूर्त में
राजा सहसा उस पलंग पर से उठ कर खड़ा हो गया, बोला-''स्नान कर चुकी हो न,
रेवती? तो चलो, राजवंश की कुलदेवी काली मां के मन्दिर में।'' रेवती पति के
साथ-साथ चल पड़ी।
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