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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


(2)

रेवती का मन प्रफुल्लित था, अत्यन्त प्रफुल्लित। सोचती-''इतना ऐश्वर्य! और, यह है पूर्व ऐश्वर्य का भग्नावशेष!'' रेवती राजमहल को घूम-घूम कर देख रही थी। नीचे के वृहत दरबार गृह का  ताला उसने खोला। उसे देख कर वह अवाक हो गई। चांदी का सिंहासन कोच, कुर्सियां और  चांदी की मूंठ लगीं तलवारें-दीवारों पर चांदी के फ्रेम में आबद्ध वृहत-वृहत तैलचित्र। चित्रों के  नीचे नाम लिखे थे। उन चित्रों को रेवती ने आंख गड़ा कर देखा और पहचान कर श्वसुर के  चित्र को प्रणाम किया-सास को भी। पति के तैलचित्र को वह मुग्ध होकर देखती रही। मन ने कानों में कहा-''यौवन-अवस्था में कितना सुन्दर था रणधीर!'' और, तुरन्त उसने गुनगुना कर  कहा-''अब भी क्या वे असुन्दर हैं?''

फिर एक स्थूल-सी नारी के चित्र के सामने खड़ी हो, वह सोचने लगी-''यही थी प्रथम राजवधू! एक सीधी-सादी नारी।''

रेवती नीचे के तल्ले से ऊपर चढ़ी, अपने कमरे में पहुंची। कमरे की सफाई हो चुकी थी, किन्तु फिर भी सुहागरात की नवोढ़ा वधू का दीर्घश्वास दीवारों पर टकराता हुआ, माथा पीटता फिर रहा था। रेवती ने लज्जा से आंचल में मुंह ढांक लिया। लज्जा-लज्जा, नारी की पराजय की लज्जा। सुहागरात के एकाकीपन की लज्जा। अरे कहां-विश्व के किस कोने में वह इसे छिपा कर रखे?

रेवती धीरे-धीरे कमरे में टहलने लगी। दीवार पर टंगे हुए बृहत दर्पण पर उसके नेत्र गए। निगाह पड़ते ही वह सिहर कर हट गई। हां, अपनी ही आकृति को देख कर वह सिहरी! क्यों? सो तो वही जाने। रेवती धीरे से बाहर निकली। अत्यन्त सुन्दर फूलों से सजे हुए दालान को पार करती हुई वह चली और अपने बगलवाले कमरे के द्वार पर हठात रुकी। कमरे के द्वार पर सुन्दर किन्तु पुरातन
परदा लटक रहा था। कौतूहलवश उसने धीरे से वह परदा हटाया और स्थारणुवत अचल रह गई। फिर कब उसके पैर उठे और कब वह सुप्त पति के पलंग के निकट पहुंची, यह वह स्वयं भी नहीं जान सकी।

दासी की पुकार से उसकी चेतना लौटी। किन्तु यह देखकर रेवती अत्यन्त विस्मित हुई कि दासी की इतनी चीत्कार-पुकार से भी उसके पति की निद्रा भंग नहीं हुई। रेवती बाहर निकली। एक नूतन दासी जलपान आदि की ट्रे लिए खड़ी थी।

अपने कमरे में पहुंच कर रेवती ने चाय का प्याला उठा लिया, कहा-''कल तो मैंने तुम्हें नहीं देखा था, सोना।''

''मैं इस महल की पुरानी सेविका हूं, रानी साहिबा! पहले की रानी बहू की सेवा मैं ही करती  थी। उनके मरने के बाद मैं फिर महल में नहीं आई। उनकी वैसी मौत को देखकर...'' वह चुप हो रही।
''कैसी मौत?''-चकित-सी रानी ने पूछा।
''क्या आपने उस तरफ की तालाबन्द कोठरी को नहीं देखा?...''
देखा है? उसी में वे गले में रस्सी का फन्दा डालकर मरी थीं। उसके बगल वाले बड़े कमरे में  वे रहती थीं।...क्या हुआ था? भगवान जाने। हां, उस सन्ध्या में जब राजा बहादुर  काली-कालिका को पूजने गए थे, तब वे भी उनके पीछे-पीछे छिप कर वहां गई थीं, इतना ही  मैं जानती हूं।'' यह कह कर सोना चाय की ट्रे आदि लेकर चली गई।

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