कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
बचपन में आदमी स्वप्न और जाग्रत, दोनों अवस्थाओं में मानो एक ही समय घूमता रहता है। जो कथाएं वृद्धाओं और दूसरों से सुनने को मिलती हैं, वे भी उसे कल्पना क्षेत्र में घूमने की प्रेरणा देती हैं, लेकिन ये कल्पनाएं सत्यता पर बहुत कम अवलम्बित रहती हैं। कहा जाता है, राजा भोज जिस सिंहासन पर बैठे थे, वह सदियों पीछे एक खेत में कई हाथ नीचे दब गया था। किसान का लड़का जब उस जगह पर जाकर बैठता, तो वह राजा का अभिनय करने लगता। खोदने पर वहां पुराना सिंहासन निकला, जिसके चारों ओर बत्तीस पुतलियां बनी थीं। कोई अयोग्य राजा जब उसकी ओर पैर बढ़ा कर चढ़ने की कोशिश करने लगा, तो पुतलियों में से एक-एक ने खड़ी होकर भोज की महिमा की एक-एक कहानी सुनाई थी। यह एक मनोरंजक कहानी हो सकती है, पर इसमें सत्यता का अंश इतना है कि हरेक प्राचीन विस्मृत चिह्न के अकस्मात हस्तगत होने पर आदमी की जिज्ञासा उसे जानने के बारे में जरूर उत्कट हो जाती है।
मेरा पितृग्राम कनैला (जिला आजमगढ़) के नाम से मशहूर है, लेकिन सरकारी कागजों में उसे कनैला-कर्नहट लिखा जाता है। हो सकता है कि किसी दूसरे कनैला ग्राम से अलग करने के लिए उसके साथ कर्नहट जोड़ा गया हो, या फिर शायद कर्नहट नाम ही पुराना हो और कनैला नाम वहां की कहावत के अनुसार कनैला फूल के जंगलो के कारण पड़ा हो। उसकी बगल में ही नरहता का छोटा गांव है, जो कर्नहट की तरह सम्भवत: नरहट रहा हो। हाट बाजार को कहते हैं, पर ये दोनों गांव हाटों से बहुत दूर हैं। रेल के सबसे नजदीक के स्टेशन आठ-नौ मील से कम दूर नहीं हैं। अभी हाल में कनैला के एक छोर से पक्की सड़क की जमीन नापी गई है। शायद पक्की सड़क बन जाने पर बसें दौड़ने लगें और तब आने-जाने में आसानी हो जाए और ये वियाबान गांव सभ्य आदमियों के गांवों में परिणत हो जाएं। कर्नहट को भी लोग कनैला के कनैल से ही जोड़ना चाहते हैं, पर वह गांव ऐसा निरा जंगली गांव पहले नहीं था, यह यहां के अवशेषों में जब-तब मिल गई चीजें बतलाती हैं। मौर्य काल की ईंटें यहां मिली हैं। धरातल पर ही डीह बाबा के स्थान में वज्रयान बौद्धधर्म की खण्डित मूर्तियां भी पूजी जा रही हैं, जो दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी की हो सकती हैं। डीह बाबा की बगल में ही पहले विस्तृत किन्तु अब डर के मारे खेत न बनाया गया, कुछ गज लम्बा-चौड़ा ऊंचा स्थान कोट के नाम से मशहूर है, जहां सैयद बाबा की कब्र पूजी जाती है। जान पड़ता है कि ये सैयद बाबा इस्लाम के आरम्भिक शासन के कोई तुर्क सेनानी थे। बनारस यहां से बीस कोस से अधिक दूर नहीं है और इस जगह से मंगई के पार सिसवा तक मीलों दूरी में गुप्त या प्रकट ध्वंसावशेष चले गए हैं, जिनसे पता लगता है कि मुस्लिम काल में भी यह स्थान उतना अकिंचन नहीं था। किंचन होने का ही शायद इसे फल भोगना पड़ा और तुर्कों की सेना ने आक्रमण करके इसे लूटा और पहले के सम्पन्न लोगों को अधिकतर मार भगाया। सैयद बाबा की परम्परा के वाहक कनैला के चन्द घर चूडीहारे-दर्जी-मुसलमान हैं, या हरिजन-अर्ध-हरिजन जातियां।
आरम्भ में, गुलाम-खिलजी-तुगलक बादशाहों के शासन काल (1194-1451 ई०) में कितने ही बड़े-बड़े अफसरों के पद पर तुर्क-भिन्न मुसलमान भी थे, जैसे असली या नकली सैयद, आदि। सैयद मसऊद सालारगाजी नामक एक ऐसे तुर्क सेनापति का हमें पता है। कनैला में भी ऐसा ही एक सैयद मुस्लिम शासक रहता था।
शताब्दियों बाद, उसके या उसके वंशज के अत्याचार की एकाध कथाएं अब भी वहां मशहूर हैं।
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