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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


(1)


कर्नहट शिंशपा नगरी का उपनगर था, जहां के किसी पुराने शासक कर्नक के नाम पर एक  हट-हाट बसी हुई थी। यही नहीं, वहां पर राजा लखनदेव का एक छोटा सा महल था। अपनी एकांतता और आस-पास के रमणीय सौंदर्य के कारण वह महल अकसर खाली नहीं रहता था।  तेरहवीं शताब्दी के प्रथम पाद में महल में राजसी तड़क, भड़क दिखाई पड़ती थी, परन्तु आज उस पर उतनी हँसी और प्रसन्नता के चिह्न नहीं दिखाई पड़ते। वहां एक विचित्र तरह की निष्क्रियता और नीरवता सी छाई दिखाई पड़ती है। कारण जानने के लिए बहुत माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं। भिक्षु तथागत श्री और पण्डित माहव (माधव) के महल के उत्तर की तरफ के पोखरे के पूर्व वाले भींटे पर, एक पेड़ के नीचे बैठे, बड़ी गम्भीरता से बातचीत कर रहे हैं, जिससे इस समय की स्थिति का कुछ पता लग सकता है।

भिक्षु तथागतश्री के शरीर पर ताम्र वर्ण का चीवर पड़ा है। उनका सिर घुटा हुआ है। आयु पचास के करीब होगी, लेकिन स्वास्थ्य के कारण वे तीस से अधिक के नहीं मालुम होते। उनके शरीर का रंग भी कुछ-कुछ चीवर के रंग से मिल जाता है। चेहरा सुन्दर और सौम्य है। आंखों की चमक से पता लगता है कि वे मेधावी पुरुष हैं। इस समय जरूरत से अधिक गम्भीरता उनके चेहरे पर है। माहव पण्डित उनसे दो-चार वर्ष ही उम्र में कम होंगे, पर वे अपनी उम्र से भी दस वर्ष और बूढ़े मालूम होते हैं। उनके गोरे मुंह पर सारी मूंछें सफेद हैं, सिर के बाल भी सन से हो गए हैं, चेहरे पर झुर्रियां हैं। उनके शरीर पर नीचे धोती और ऊपर एक सफेद चादर है। लम्बी शिखा पीछे की ओर बंधी है। दोनों यद्यपि एक धर्म के मानने वाले नहीं हैं, पर संस्कृति एक होने से उनका मतभेद बहुत सीमित ही है। दोनों ने कई साल तक साथ ही  वाराणसी में अध्ययन किया हैं-कितने विषयों को तो एक ही गुरु से; इसलिए दोनों में विशेष आत्मीयता है। आज की स्थिति से दोनों एक समान चिन्तित हैं।

माहव पण्डित कहते हैं-''भन्ते तथागत, ज्योतिष मैंने भी पढ़ा है; पर ज्योतिषियों की भयंकर  भविष्यवाणियों पर मैं विश्वास नहीं रखता-न पुराने ग्रन्थों में म्लेच्छ राज्य के कायम होने की बात पर ही मेरा विश्वास है। पर मुझे इसका अर्थ समझ में नहीं आता कि हमारे इतने बड़े देश में-जहां करोड़ों आदमी रहते हैं और जिनमें वीरता की कमी नहीं है-कैसे ये थोड़े से तुर्क सवार गांवों-नगरों को लूटते, आग लगाते, चीरते-फाड़ते, अजेय हो, बनारस और आगे तक को अपने अधिकार में लेने में सफल हुए हैं?''

तथागत-''भाई, इसमें चकित होने की आवश्यकता नहीं। जो बात आंखों के सामने देखी जा रही है, उसमें सन्देह करने की गुंजाइश ही क्या है? तुर्क अजेय हैं-उन्होंने सिन्ध को लिया, कन्नौज को लिया, दिल्ली में अपनी राजधानी बनाई, वाराणसी को मटियामेट किया, और अब गंगा के दक्षिण-पूर्व का बहुत सा भाग भी उनके हाथ में चला गया है। नालन्दा की ईंट-से-ईंट बज गई, उसके देवालय और पुस्तकालय राख बन चुके हैं। काबुल से भी पश्चिम कहां तुर्कों का अपना मूल स्थान, और कहां वाराणसी और नालन्दा!''

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