लोगों की राय

कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

Like this Hindi book 0

स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


*                          *                      *

अब, जब दिन पोस्त के फूल सा फूल कर प्रति शाम को अपनी पंखुड़ियां बिखेर देता, तब मदन घर में उस उत्साह से प्रवेश नहीं करता, जैसे पत्नी की जीवितावस्था में करता था। पत्नी के बड़े से चित्र की छाया में बैठ, वह पुरानी पुस्तकों-पत्रिकाओं को उलटने-पलटने में उदास संध्याओं को बिता देता और अन्त में खाट पर पड़ रहता। कभी-कभी वह सिर उठा कर देखता, तो चित्रपट पर विषाद की वही गहरी रेखाएं मिलतीं, जो जीवितावस्था में मामा को याद कर प्राय: उभर आती थीं।

एक दिन पुरानी घटनाएं फिर साकार हो उठीं। उस शाम को उसके हाथ में वही पत्रिका थी, एक बार बहुत दिन पहले जिसे पढ़ते-पढ़ते वह उठा था, नहाने वाले घर की ओर गया था, पर उसके पढ़ने का लोभ संवरण न कर सका था और लौट आया था। उसे अपने दफ्तर ले जाने वाले चमड़े के बैग में धर पुन: नहाने चला गया था। उस दिन दफ्तर में साहब आ गए, उनके साथ सारा दिन यों ही बीत गया। रात देर से लौटने पर सुभद्रा ने मामा की बात छेड़ दी थी। तब उसका मन ऐसा खट्टा हो गया था कि वह उसे पढ़ सकने की इच्छा भी न कर सका था। उसे भली-भांति याद आया-दूसरे दिन तड़के ही सब सामान बांध कर उसे दफ्तर के काम से बाहर जाना पड़ा था। तब भी वह उसे साथ ले जाना चाहता था, पर हड़बड़ी में वह घर पर ही छूट गई थी। रास्ते भर, उसमें प्रकाशित जासूसी उपन्यास का धारावाहिक अंश पढ़ने को वह तड़फड़ाता रहा था-यह भी उसे न भूला था। स्टेशनों पर उतर-उतर उसने उस अंक को बहुत खोजा, पर न मिला। लौटने पर, सुभद्रा ने सब अस्त-व्यस्तता को सुधार कर क्रमबद्ध कर दिया था, इसका तो उसे संतोष हुआ था; पर वह अंक कहां रखा गया था,
इसकी उसे बहुत दिनों तक खोज रही थी। विशेष रूप से इधर-उधर कई विक्रेताओं के यहां खोजने पर भी, युद्ध के उन समस्त पदार्थों की भांति, विदेशी पत्रिकाओं की दुर्लभता के दिनों में वह अंक न मिला था। उस धारावाहिक उपन्यास के क्रम के टूट जाने से उसे बहुत असंतोष हुआ था। अगले अंक से उसका सारांश पढ़ कर किसी प्रकार उसने अपने-आपको संतुष्ट किया था। फिर भी, जब तक उसके मन में उस कहानी की छाप बनी रही, तब तक जहां उसका स्मरण आता, उस अंक के खो जाने की उसे कसक होती।

आज कागजों में सहसा वह प्रकट हो गया, तो उसे स्वाभाविक कौतूहल ही नहीं हुआ, सारी घटनाएं याद हो आईं। बरबस उलटते-पुलटते उसका हाथ वहां जाकर रुका, जहां धारावाहिक अंश शुरू होता था, क्योंकि इतने दिनों की बात होने पर भी उसे पढ़ डालने की उत्कंठा कम न थी। पर दूसरा पृष्ठ उलटते ही एक बहुत बड़ा उद्घाटन हुआ। दस रुपए का नोट उसमें पड़ा था। वही नोट, जिसके लिए इतना बड़ा काण्ड खड़ा हुआ था-अन्तत: जिसकी ग्लानि सुभद्रा के मन में रही थी। वही था-सन्देह का कोई कारण न था। छः-सात वर्षों से तो उस पत्रिका का चलन ही बन्द हो गया था। फिर, उस पत्रिका के अखबारी कागज पर उतनी दूर रंग और भी गहरा हो गया था, जैसे स्मृति वेदना को अपने भीतर छिपाए-छिपाए और भी गहरी बना देती है।

उस दिन से मदन मामा की और भी अधिक खोज करने लगा। शहर के अनेक मन्दिरों, मठों तथा धार्मिक आचार्यों से पूछ-ताछ करने पर भी उसे कोई पता न लगा। सुभद्रा ने जिस सम्प्रदाय में मामा को दीक्षित बतलाया था, उसके कई व्यक्तियों से वह मिला, फिर भी उसे सफलता न मिली।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book