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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''और मामा, तुमने सब छोड़कर यह वैराग्य क्यों धारण कर लिया?''-पुरानी स्मृतियों में डूबने-उतराते हुए उसने पूछा-

मुरझाती हुई फूल की सी सूखी हँसी के साथ मामा ने उत्तर दिया था-''तेरे सिवा कौन बच रहा है अब मेरा, जो यह प्रश्न भी करता है-किसके लिए अब पहनूं-ओढूं? बहुत कर चुका, अब थोड़ी और बीत जाए। कभी-कभी आकर तुझे देख लेता हूं, तो छाती ठंडी हो जाती है।''  

"फिर भी, मामा, कहीं एक ठिकाना तो बना लेना चाहिए न।'' सुभद्रा ने स्वाभाविक बात कही थी-''इस तरह बेठिकाने घूमते रहने में कष्ट ही कष्ट है, सुख नहीं।''

और, मामा ने उतनी ही स्वाभाविकता से उत्तर दिया था-''बाप-दादों से चली आई गुरु परम्परा वाले गोसाई जी एक मन्दिर बनवाने वाले हैं। जो कुछ बचा-खुचा था, उसे मैंने मन ही मन वहीं अर्पण का दिया है। तुम तो सब जानती ही हो-था भी क्या? सोने की दो-चार चीजें थीं-कोई बीस भर की और एक नथ। सब मिला कर कोई दो हजार का सामान होगा। उसे वहीं दे देना है। फिर मुट्ठी भर अन्न और चार हाथ छाया चाहिए, बस! भगवद्भजन में जीवन कट जाए-अब तो यही कामना है।'' कहते हुए उन्होंने अपनी बढ़ी हुई अधपकी दाढ़ी पर हाथ फेरा था।

तभी सुभद्रा अतीत के सामाज्य से, शाप-भ्रष्ट नहुष की भांति, वर्तमान में आ गिरी थी जब उसके पति ने दफ्तर से लौट कर दरवाजा खटखटाया था। उसी क्षण सुभद्रा के मन में न जाने कैसी-कैसी आशंकाएं उठ खड़ी हुई थीं।

पर इस बार कोई अप्रिय घटना न घटी थी। मामा सात दिन रुके थे और रोज जल्दी ही खा पीकर कहीं चले जाते थे। फिर, रात काफी देर गए लौटते थे। अत: सुभद्रा ने निश्चिन्तता की सांस ली थी। फिर भी अन्तिम दिन, जब कमली में अपना सामान लपेट कर वे उससे एवं उसके स्वामी से विदा ले रहे थे, तब मदन ने बहुत रूखे स्वर में क्या कह डाला था, उसे वह आज तक न समझ सकी थी ''देखिए, हमारा घर बहुत छोटा है। अत: भविष्य में आप कहीं दूसरी जगह टिकने का प्रबन्ध कर लीजिएगा।''

उसके बाद महीनों तक न मामा आए और न उन दोनों में ही उनके सम्बन्ध में कोई चर्चा चली। दोनों जैसे इस प्रश्न पर एक-दूसरे से कुछ छिपा कर रखते, जिसे प्रकट करने में वे आंखें चुराते।

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