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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


उस बार मदन के दफ्तर चले जाने पर, दिन भर अकेली पड़ी-पड़ी, वह इस सबके प्रति अपने पति की रुखाई पर विचार करती रही थी, पर उसे कोई समाधान न मिला था।

प्रति दिन की भांति शाम को पति के लौटने के बाद, जब भोजन, इत्यादि से छुट्टी पाकर, गोद में शिशु को लेकर, सुभद्रा मदन से इधर-उधर की बातें करने लगी, तब भी उसे कोई संधि न मिल सकी थी कि वह मामा के प्रति मदन के भाव को जान ले। फिर भी, न जाने कितना रोकते-रोकते उसके मुंह से निकल पड़ा था-''मामा से पूछना भूल गई कि आम के उस पेड़ का क्या हुआ, जिस पर झूला पड़ता था और मैं दिन भर झूलती रहती थी।''

मदन जैसे मामा को इतनी देर भूल कर कुछ आराम का अनुभव कर रहा था। पत्नी की इस बात से वह चौंक सा उठा था-''कौन हैं ये
तुम्हारे मामा? मैंने तो जैसे इन्हें कभी देखा तक न हो। कुछ अजब-से लगते हैं।''

सुभद्रा ने पति पर असर डालने के हेतु सोद्देश्य कहा था-''हमारे विवाह में तो सारा काम हँस-हँस-कर कर रहे थे, फिर भी तुम्हें याद नहीं? पहले बहुत पैसे वाले थे। इधर उनकी सज्जनता का लाभ उठाकर उनके नौकर-चाकरों ने सारी सम्पत्ति हड़प ली। है भी नहीं कोई इनके। अब कुछ विरक्त-से घूमते हैं। देखा नहीं तुमने, कपड़े-लत्ते सफेद खद्दर के, लम्बे-लम्बे सिले हुए, दाढ़ी-मूंछ मुंडाए?''

अंधेरा बढ़ चुका था, सो सुभद्रा यह न देख सकी कि मदन के चेहरे की रेखाएं कठोर हो गई थीं। पर भविष्य में उन दोनों के बीच मामा को लेकर बहुत दिनों तक कोई बात न हो सकी और तभी एक दिन मामा पुन: आ गए।
मदन उस दिन दफ्तर गया था। सुभद्रा ने बहुत ललक कर उनका स्वागत किया था। बहुत देर तक वह उनसे बचपन और मां के सम्बन्ध में बातें करती रही थी। न जाने कितनी स्मृतियों के कपाट वह खोलती-मूंदती रही थी। उनकी पिछवाड़े वाली पगडंडी से प्रतिदिन वह अपनी मां के साथ जा गंगा में ऊधम करती थी, इसका भी उल्लेख आया था। बगल के घर में लुहार की लड़की उसकी सखी थी-उसकी भी चर्चा चली थी। पंडित रामभरोसे मामा के घनिष्ठ मित्र थे। उनकी लड़की के साथ गुड्डे-गुड़ियों के न जाने कितनी बार उसने ब्याह रचाए थे। उसका ब्याह एक वृद्ध से हुआ था, जिसे लोग गुड्डे की भांति एक जगह से दूसरी जगह उठा कर बैठा देते थे, यह मामा ने बताया था। और, अन्त में, उसने उस आम के पेड़ की पूछ-ताछ की थी, जिसकी डाल पर झूला डालकर वह अनेक बरसातों में झूली थी। वह भी सारी सम्पत्ति के साथ बिक-बिका गया था-न जाने किस-किस के हाथों में घूमता रहा था।...वह दिन में अदृश्य हो जाने वाली तारावली-सा वर्तमान होते हुए भी वर्तमान न था।...

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