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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


उसका हाथ मन के साथ किस पूर्णविराम पर कब रुक गया था, इसे वह स्वयं न जान सकी। और दाल उफन कर जब आग को बुझा देने की चुनौती देने लगी, तब जाकर उसका ध्यान बचपन के सुनहले दिनों से लौटकर फिर पति की उक्ति पर लौट आया-''आखिर घटना हो ही गई।''

परसों रात जब मामा ने दरवाजा खटखटाया, तभी उसके मन में यह वाक्य कैसे गूंजने लगा था, यह वह स्वयं न समझ सकी थी। तब से आज तक, तीन दिनों में इस वाक्य ने उसके मन को मथ डाला था। फिर भी, इस चिरपरिचित वाक्य ने उसको इतना उद्वेलित कर दिया कि वह इतना भी न पूछ सकी कि आखिर क्या हो गया?

सहसा बड़ी-बड़ी आंखों से बूंदें ढुलक कर उसके सांवले गालों पर आ टिकीं। मदन बाल झाड़ते-झाड़ते कब आ पहुंचा, इसका उसे भान ही न हुआ। उसने सुभद्रा को टोका-''यह क्या, तुम तो जुबान पर ताला लगा देना चाहती हो। आखिर, चुपचाप सहते जाएं, ऐसी हमारी हैसियत तो है नहीं।'' उसका लक्ष्य आंसू की उन बूंदों की ओर था।

सुभद्रा ऐसी जड़ हो गई कि वह उन अश्रु बिन्दुओं को आंचल से पोंछ भी न सकी-ऐसा कोई उपाय भी न था कि वह उन्हें वापस लौटा कर आंखों में ही पी सकती। मदन लौटते-लौटते कह गया-''दफ्तर का समय हो गया है-अब जो कुछ तैयार हो, परोस दो।'' सुभद्रा फिर अतीत में घूमने लगी।

मामा की सारी सम्पत्ति तभी उड़ गई थी, जब सुभद्रा बचपन पार कर रही थी। दिनोंदिन उनके बड़े देहाती घर में आने-जाने वालों का क्रम घटता गया; ऊपरी सजावट के सामान टूटते-फूटते एवं बिकते गए; मकान का जो अंश गिरता गया, उसकी मरम्मत न हो सकी और अन्तत: किसी स्वप्न लोक की तरह उनकी सारी सम्पत्ति के साथ-साथ वह घर भी न जाने कहां चला गया। वे विरक्त से हो गए और इधर-उधर घूमने लगे-कभी-कभी सुभद्रा के यहां भी चले आते।

पहली ही झलक में मदन को उनका आना न रुचा था। उस बार दूसरे दिन ही वे चले गए थे, तो मदन ने सन्तोष की सांस ली थी-इसे बिना बताए ही सुभद्रा ने जान लिया था।

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