कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
|
|
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
मेज पर रखे सारे सामान को इधर-उधर कर, रद्दी की टोकरी को उलट-पलट कर, उसके भीतर पड़े फटे लिफाफों-चिट्ठियों को फर्श पर बिखेर, एक ओर बिछी गद्दी-चांदनी को कई स्थानों से उलट-पलट, इधर-उधर बिखरे कपड़ों को पुन: बिखेर, जिनकी तलाशी लेने से कई की जेबें बाहर ही निकली रह गई थीं, सारे कमरे को अस्त-व्यस्त कर, मदन ने ऊपर घड़ी की ओर देखा-दस बज चुके थे। उसने अपनी बड़ी लटों को, जिनमें से कुछ आंखों के सामने लटक आई थीं, सिर के एक झटके से पुन: अपने स्थान पर ला दिया फिर क्लान्त हो, वह उठ खड़ा हुआ।
''आखिर घटना हो ही गई''! मदन का रोष भरा उलाहना यद्यपि किसी को लक्ष्य करके नहीं था, फिर भी आंगन के उस पार चौके में बैठी सुभद्रा के कानों से टकराकर वह रुक गया। मदन को उत्तर देने के लिए वह कोई बात ढूंढ़ने लगी, पर अंधेरे भंडार घर में कुछ दिनों से रखी और इधर-उधर हुई किसी छोटी-मोटी चीज की तरह, बहुत टटोलने पर भी उसे कोई बात न मिल सकी। उसके माथे पर पसीने की बूंदें और बड़ी हो गईं-अपनी असहायावस्था पर उसकी आंखों में आंसू उमड़ आए।
परसों रात जब कई महीने बाद उसके मामा फिर मेहमान होकर आए थे, तभी उसके मन में न जाने कितनी आशंकाएं उठने लगी थीं,
न जाने क्यों उसका हृदय धड़कने लगा था और उसने उसी बात की कल्पना कर ली थी, जिसे आज मदन ने अन्तरिक्ष की ओर देख कर अर्धस्वगत सा कह डाला था।
फिर सुभद्रा के हाथ, मशीन की तरह, बटलोही में पड़ी दाल को चलाने में व्यस्त हो गए। उसे वह न जाने कितनी देर तक चलाती रही-उसी भांति, जैसे उसके मन में घूम-घूम कर अपने बचपन की घटनाएं आ रही थीं।
उसके पिता बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे। एक बहुत ही अस्पष्ट छाया की भांति उनकी आकृति कभी-कभी उसके स्मृति पटल पर उभर आती थी। किन्तु उसे यह भली भांति याद था कि उसकी मां अपने इन्हीं भाई के यहां महीनों रहती थी। वहां एक बड़े से आम के पेड़ पर सखियों के झुण्ड-समेत झूला झूलते उसकी न जाने कितनी बरसाते बीती थीं।...
|
लोगों की राय
No reviews for this book