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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


ज्यों ही वह ट्राम शेड की ओर मुड़ा, उसने देखा, ट्राम के पास बिजलीवाला बीड़ी पीता हुआ जा रहा है। वह उसका परिचित था। उसने सोचा कि पास जाकर उससे दो आने मांगे।

''क्यों, क्या हो रहा है, भाई?''-मुनुस्वामी ने उससे पूछा।
''ट्राम की मरम्मत हो रही है।''
''क्या फिर से चलेगी?''
''वह तो भगवान जाने। हम तो हुक्म बजा रहे हैं।''
''आखिर मरम्मत क्यों हो रही है?''
''सुना है, कम्पनी ट्रामकारें बेचना चाहती है। बेचने से पहले रंग-वंग चढ़वाकर मरम्मत करवाकर, अच्छे दाम बनाना चाहती है।''

"हूं।"
''अभी दो-चार दिन का और काम है-फिर हमें भी पर्चा पकड़ा देगी। इन तंगी के दिनों में घर-घर की धूल छाननी पड़ेगी।'' कहता-कहता वह तार का बण्डल संभालने लगा। मुनुस्वामी ने दो आने उधार लेने चाहे, पर मांग न सका। ''क्यों भाई, बीड़ी दोगे?''-उसने कहा और बिजली वाले ने एक बीड़ी दे दी।

बीड़ी सुलगा कर वह दीवार के सहारे खड़ा हो ट्रामकार देखने लगा। उसके कानों में शायद उसकी खट-खट की ध्वनि भी आ रही थी। अधजली बीड़ी बुझाकर उसने जेब में रख ली।

सांझ होने पर पैर घसीटता-घसीटता वह घर चला गया। लड़की से बात करनी चाही, पर उससे क्या कहता? उसका कुम्हलाया हुआ चेहरा देखकर उसने चुप रहना ही अच्छा समझा। खाली पेट सो रहा।

चार-पांच दिन लगातार वह ट्राम शेड जाता-वहीं घंटों खड़ा रहता, पर भीख न मांग पाता। एक दिन वहीं खड़ा-खड़ा बेहोश हो कर गिर गया। पुलिस वाले ने देखा और बन्दूक कन्धे पर रख, लेफ्ट-राइट करता इधर-उधर चलता रहा। आने-जाने वाले भी उसकी तरफ और चले जाते। शहरों में तो परिचित होने पर ही परोपकार जागता है।

वह थोड़ी देर वैसे ही पड़ा रहा। कोई मैली-कुचैली औरत एक हंडिया में मांड़ लिए पास के रिक्शा स्टैण्ड की ओर जा रही थी। उसने अपने पति को आवाज लगाई और पानी लाने के लिए कहा। पानी मुनुस्वामी के मुंह पर छिड़का। उसको होश आया। उसने कहा कि भूख लग रही है। उस औरत ने उसको मांड़ खिला दिया। इतने में तमाशबीन भी इकट्ठे हो गए।

अगले दिन भी वह ट्राम शेड के पास यथापूर्व खड़ा हो गया। थोड़ी देर में कम्पनी का इन्स्पेक्टर डांटता-डपटता शेड से बाहर निकला। मुनुस्वामी को देखते ही उसकी आंखें अंगारे बन गईं।
वह पुलिस वाले से कह रहा था-''पुलिस, केस चलाओ। पांच कारों से बिजली के लट्टू गायब हैं। कई मशीनों से तो पीतल के हैंडल भी चुरा लिए गए हैं। पकड़ो इन चोरों को...'' वह कह ही रहा था कि मुनुस्वामी दूसरी तरफ देखने लगा।

''हो न हो, इसी ने चुराए हैं।''-पुलिस वाला मुनुस्वामी की ओर इशारा कर रहा था-''सात-आठ दिन से यहां मटरगश्ती कर रहा है।'' पुलिस वाले मुनुस्वामी को थाने ले गए।

मुनुस्वामी जानता था कि वह उन बिजली वालों की करतूत थी। उनको नौकरी से तो हाथ धोना ही पड़ रहा था, जाते-जाते वे लट्टू वगैरह बेंच कर दो-चार पैसे बना लेना चाहते होंगे।

इन्सपेक्टर ने उससे जवाब तलब किया, पर वह कुछ न बोला। डराया-धमकाया, पर उसके मुख से एक शब्द न निकला। ललचाया,
फिर भी वह न बोला। शायद वह जानता था कि घर से जेल ही अच्छी है। कम से कम बिना भीख मांगे व हां जाना तो मिलेगा।

मुनुस्वामी पर केस चलाया गया। अदालत ने पूछा-''क्या तुमने चोरी की है?''
''हूं।''-मुनुस्वामी ने अदालत की तरफ एक बार देखा, फिर चीथड़ों के नीचे चिपके हुए पेट को निहारा। सहसा उसके ओंठ चिपट गए।
मुनुस्वामी को एक महीने की सजा मिली। वह मुसकरा दिया।

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