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परसों रात जब मामा ने दरवाजे पर आवाज लगाई, तभी सुभद्रा के मन में किसी ने
कह दिया था, इस बार कुछ न कुछ होकर रहेगा। कल का दिन भली-भांति बीत गया और
रात पति के सो जाने पर मामा ने जब सुभद्रा से कह दिया कि कल सुबह ही मैं
चला जाऊंगा, मेरे लिए रसोई न बनाना, तो सुभद्रा के मन से एक
भारी बोझ हट गया। उसकी सारी आशंकाएं निर्मूल सिद्ध हुईं, यह जान
कर उसे अपूर्व सन्तोष हुआ। पर आज दफ्तर जाते समय स्वामी ने जो 'आखिर घटना
हो ही गई' कह दिया, उससे उसका मन फिर उद्विग्न हो गया। खाने के स्वल्प
अवकाश में उसने इस अप्रिय प्रसंग को छेड़ने की भूल न की। परिणाम यह हुआ कि
सारा दिन उसका मन उससे पूछता ही रहा कि आखिर क्या हो गया?
शाम को मदन देर से लौटा। खाना खा, दिन भर की गर्मी से झुलसे शरीर को सुखद
समीर से ताजगी पहुंचाने के लिए, जब वह छत पर बैठा, तब सुभद्रा ने बरबस यह
अनुभव किया कि स्वामी मामा की बात छेड़ने के लिए उद्विग्न हैं।
इस विकलता से छुटकारा देने के लिए जब वह कोई बात छेड़ने का उपक्रम करने
लगी, तब बहुत देर तक दोनों के बीच मौन का एक परदा पड़ गया, जो
उत्तरोत्तर घना होता गया। इस असह्य परिस्थिति को दूर करने के लिए सुभद्रा
ने बात निकाली-''मामा कहते थे कि उन्होंने कोई दो हजार के गहने अपने
गोसाईं जी को समर्पित कर दिए।''
मदन फिर भी चुप रहा। उसके असमंजस को देख, सुभद्रा चौंक उठी। सुबह आवेश में
पति जो कुछ कह गया, उसे दुबारा कहने में जब उसे इतना संकोच है, तब कोई
साधारण घटना नहीं जान पड़ती। उसे तुरन्त ही जान लेनी चाहिए वह बात, जिससे
निराकरण तो हो सके। वह बोली-''क्या कह रहे थे तुम आज? कौन सी
बात हो गई सुबह?''
मौन का परदा हट गया-संकोच की अनुल्लंघनीय दीवार ढह गई। मदन ने
रुकते-रुकते कहा-''कुछ नहीं। दस रुपए का नोट मेज पर रख, दावात
से दबा नहाने गया था। लौटकर देखता हूं कि न मामा हैं, न नोट। तब से
खोजता-खोजता हार गया, उस कोठरी की एक-एक चीन तलाश कर डाली-कुर्सियों के
गद्दे उलट डाले, रद्दी की टोकरी में रखे पुराने अखबार-चिट्ठियां
देख डालीं, मेज पर धरी किताबों को देखा, खूंटियों पर पड़े कपड़ों
की एक-एक जेब देख डाली, नहाने वाले घर की हर चीज उलट डाली...।''
सुभद्रा को जैसे काठ मार गया। वही मामा न, जिनके दरवाजे गाय-भैंस-घोड़ों की
कतारें बंधी रहती थीं? वही न जिनके यहां नित्य नए-नए उत्सव होते रहते थे?
वही न, जिनके यहां आने-जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी? जिनके यहां...।
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