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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


टूटा पुरजा

ए० रमेश चौधरी

जब मुनुस्वामी वापस न आया, तो उसकी पत्नी कोण्डालम्मा ने मुहल्ले में पांच-दस से कहा, लड़की को सड़क पर भेजा, किसी पड़ोसी को ट्राम शेड के पास पूछ-ताछ के लिए रवाना किया। पर जब उसका कुछ पता न लगा, तो परिवार पहले की ही तरह चलने लगा, जैसे उसकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से कोई फर्क न पड़ता हो।

कोण्डालम्मा ने दो-चार दिन रसोई जरूर नहीं की, पर शायद वह भी इसलिए नहीं कि मुनुस्वामी घर में न था, बल्कि इसलिए कि घर में पकाने के लिए ही कुछ न था। थोड़ी-बहुत वह रोई-पीटी भी। पर चूंकि रोना-पीटना रोजमर्रे का काम था, इसलिए किसी पर कोई विशेष असर न हुआ। मानो तालाब में किसी ने पत्थर फेंका, लहरें उठीं और तालाब ही में समा गईं-तालाब का पानी फिर से निश्चल हो गया।

मुनुस्वामी का परिवार एक बेकाम मशीन की तरह था और वह स्वयं एक टूटा-फूटा, ढीला-ढाला पुरजा था।

मुनुस्वामी की उम्र कोई बावन-तिरेपन की थी। मोटा शरीर, काला तपा रंग, सरकण्डे के फूल से बाल, झुर्रियों वाला चेहरा।

जब तक वह ट्राम की कम्पनी में काम करता रहा, तब तक उसका जीवन भी ट्राम की तरह बना रहा-पटरियों पर सीधा चलता गया, आगे-पीछे खट-खट करता, धीमे-धीमे। सबेरे घर से काम पर जाता और शाम को वापस चला आता। पिछले पच्चीस साल से वह यही करता आया था। जैसे ट्राम को कभी-कभी कारखाने में मरम्मत व रंग के लिए भेज दिया जाता था, वैसे ही उसको भी कभी-कभी आराम के लिए बहुत-कुछ मिन्नत के बाद छुट्टी मिल जाती थी।

परन्तु अब उसकी हालत उस टूटी-फूटी ट्राम की तरह थी, जो पटरी पर से गिर पड़ी हो, या जिसके पहियों के नीचे से पटरी गायब हो गई हो।

वह ख्वाब देख रहा था कि एक-दो साल में वह रिटायर हो जाएगा, प्रोविडेण्ट फण्ड मिलेगा, लड़की की शादी कर देगा और राम-नाम जपता वक्त काट देगा। ज्यों-ज्यों रिटायरमेण्ट के दिन नजदीक आते जाते थे, उसमें एक अजीब चुस्ती सी आती जाती थी। उसके पोपले मुंह पर रह-रहकर हँसी दौड़ जाती थी।

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