कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
मालूम हुआ कि नेता सिरदर्द से चुप अकेले लेटे हैं। एक बार मिल लेना और भी
आवश्यक हो गया। नेता के चेहरे पर सचमुच ही वेदना छाई थी। आंखें मिलने पर
आंखों से ही पूछा-''क्यों?''
नेता ने कातर आंखें मेरी ओर उठा कर उत्तर दिया-''अहम् का दम्भ कितना गहरा
दबा रहता है।...बदला लिए बिना रह न सका।...अब लज्जित हूं। मैंने दूसरों को
यूं ही छोटा मान लिया था।''
इतनी बड़ी सजा देने के लिए तो मैं स्वयं भी तैयार होकर नहीं गया था। अब और
क्या कहने को रह गया था!
लेकिन मैं स्वयं अपराधी था, कवियित्री के सामने। घटना के लिए अपने
उत्तरदायित्व के प्रति खेद प्रकट करना तो आवश्यक था। संकोच के कारण साहस
नहीं हो रहा था, पर गए बिना रहता कैसे?
दरवाजे पर मेरी दस्तक के उत्तर में कवियित्री ने स्वयं ही किवाड़ खोले।
उनके हाथ में कलम देखकर ठिठक गया-''क्षमा कीजिए, आप कविता लिख रही
थीं?...''
''नहीं-नहीं, आइए-आइए।'' कवियित्री के चेहरे पर दबी सी मुसकान फैल कर निखर
गई।
बात करना सरल हो गया। भीतर जा वे सोफा पर बैठ गईं, तो मैंने कहा-''आपके
काम में विघ्न नहीं डालूंगा। पंडाल में ऐसी घटना की मुझे आज्ञा नहीं
थी।...केवल क्षमा मांगने आया था।''
कवियित्री के चेहरे की मुसकान सन्तोष के पुट से गहरी हो गई। उनका हाथ मुझे
चुप रखने के संकेत के लिए उठ गया। फिर, संगीत-भरा संतुष्ट स्वर मुझे सुनाई
दिया-
''दंड पाया,
मुक्त हुई
अपने अभियोग से!''
और कवियित्री ने तृप्ति की सांस ले कलम एक ओर रख दी।
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