कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
पर अचानक मद्रास की ट्रामवे कम्पनी बन्द कर दी गई। बताया गया, घाटे के
कारण ऐसा हुआ। अदालतों में मुकदमेबाजी हुई। सरकार ने भी हाथ-पैर हिलाए।
अखबारों में शोर-शराबा हुआ। लोगों में खलबली मची, बस।
मुनुस्वामी पर तो बिजली ही गिर पड़ी। उसकी ट्राम पटरी पर से फिसल चुकी थी।
आशाओं की बांबी एकाएक ढह गई थी। उसको ऐसा लगा, मानो गाड़ी तो वह चला रहा
हो, पर गाड़ी चल न रही हो। लड़की की शक्ल देखते ही वह जल-सा उठता। दीवार पर
टंगे देवी-देवताओं को मन ही मन हाथ जोड़ता, भाग्य को कोसता और झख मार कर
बैठ जाता। थोड़ा-बहुत पैसा मिला था, सो जैसे-तैसे गुजारा कर रहा था।
वे हाथ-पैर, जो सिवाय नींद के कभी खाली न रहे थे, ऐसे लगते थे, जैसे
खुद-ब-खुद हिल रहे हों। घर में बैठा क्या करता? बीड़ी सुलगाता और साथ के
ड्राइवरों के पास जा अपना दुखड़ा रोता। सबका रोना एक जैसा ही था। कौन किसको
सुनाता और किसकी सुनता? घर उसको काटता सा लगता। एक लड़की थी-उम्र बीस-बाईस
की। पच्चीस वर्ष खून-पसीना एक किया, पर वह लड़की के हाथ
भी पीले न कर पाया। किस्मत की बात है। पेरुमल ने दस साल ही नौकरी की और
तीन लड़कियों की शादी करवा दी।
मुनुस्वामी जो कुछ कमाता, खाने-पीने में खर्च हो जाता। इकलौती लड़की थी,
लाडली। जो कुछ मांगती, पाती। बाप ने कभी 'न' नहीं की। मां ने कभी उसे आंख
न दिखाई। और अब, वही लड़की नागिन की तरह लग रही थी।
उनके बारे में मुहल्ले वाले बे सिर-पैर की कहते थे। कइयों का तो यह भी
कहना था कि मुनुस्वामी को लड़की प्यारी है। वह उसके बगैर एक दिन भी न रह
सकेगा, इसलिए उसको वह क्वांरी रखे हुए है। हो सकता है कि यह कुछ हद तक ठीक
भी हो, पर सच तो अब यह है कि वह लड़की से दूर भागता रहता है।
एक महीना बीता। दो महीने बीते। मुनुस्वामी ने दौड़-धूप की। पर जब नौकरी थी,
तभी किसी ने न पूछा, तो भला अब उसको कौन पहचानता? रिश्तेदारों में बात
छेड़ी, पर सबने इधर-उधर की कही और असली बात टाल दी। उधर, घर में पत्नी आग
उगलती रही।
पत्नी की तो आग उगलने की आदत थी। उसने अपनी जिन्दगी उस आग को झेलते ही
काटी थी। वह अपनी जलन को काम में भुलाने की कोशिश करता था। न जाने भगवान
ने उन दोनों की क्या जोड़ी बनाई थी-पत्नी की और उसकी कभी न पटी। उसकी हर
बात में मुनुस्वामी को जहर का डंक दिखाई देता।
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