कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
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नेता दोपहर की गाड़ी से नगर में आने वाला था। उसकी वीरता और त्याग का आदर
करने वालों ने उसके सम्मान के लिए सन्ध्या-समय एक सार्वजनिक सभा
का आयोजन किया था। सभा से पहले एक चाय पार्टी का प्रबन्ध था।
स्टेशन पर उसका स्वागत करने वालों की भारी भीड़ थी। सबका मन रखते हुए उस
भीड़ से बाहर निकल पाने में उसे काफी समय लगा। भीड़ उसके दर्शनों के लिए
आतुर थी, परन्तु स्वयं उसकी आंखें किसी और को देख पाने के लिए
आतुर थीं।
चाय पार्टी से पूर्व कुछ मिनट के अवकाश में नेता के लिए अपनी आतुरता का
दमन कर लेना सम्भव न रहा। वह रास्ता बताने के लिए मुझे साथ लेकर चल पड़ा।
जिस समय ड्योढ़ी की सांकल बजा कर हम लोग भीतर से किसी के आने की प्रतीक्षा
कर रहे थे, साथ के कमरे से खिलखिला कर हँसने और दो आवाजों में विनोद का
स्वर सुनाई दे रहा था। इनमें से एक स्वर नेता की अत्यन्त असहाय अवस्था में
उसकी चरण रज श्रद्धा से ले आने वाली कवियित्री का ही था। उस स्वर का
प्रभाव नेता की मुख-मुद्रा पर स्पष्ट दिखाई दिया। वह क्षण भर के
लिए रोमांचित हो गया।
सांकल बजाने के उत्तर में एक छोकरा नौकर आया। नेता ने अपना नाम और काले
पानी से आने की सूचना साथ के कमरे में देने के लिए कहा। छोकरे ने भीतर से
लौट कर उत्तर दिया-''बहन जी अभी बाहर गई हैं। शाम को लौटेंगी।''
इस बार मैंने देखा कि नेता के दृढ़ता के प्रतिबिम्ब चेहरे पर सहसा पसीना आ
गया-फिर सूर्य के सामने घना बादल आ जाने से पृथ्वी पर फैल जाने वाली छाया
की तरह श्यामलता। इस छोटी सी घटना या रुखाई के धक्के से स्वयं मुझे भयंकर
आघात लगा। जिस पर यह चोट पड़ी थी, उसकी अनुभूति का अनुमान कर लेना आसान
नहीं था।
चाय पार्टी में नेता एक प्याली चाय भी न ले सका। जान पड़ता था कि वह खराब
सड़क पर तेज चलने वाली बस में खड़ा अपने पांव पर संभले रहने का
यत्न कर रहा था। सभा में उसकी वाक्शक्ति शिथिल रही। नगर छोड़ कर चले जाने
की व्यग्रता वह छिपा न सका।
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