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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


आत्म-अभियोग

यशपाल

अपने छोटे से नगर में महत्ता और संकीर्णता का जो विकट संघर्ष मैंने देखा है, उसका प्रकट  रूप तो कुछ भी नहीं था। वह घटना इतनी सूक्ष्म थी कि समारोह में एकत्र दूसरे लोग कुछ  जान भी न पाए। जानने के कारण ही मेरा मन उस बोझ से इतना छटपटा रहा है। उन  आदरणीय लोगों की बाबत कुछ कहा भी नहीं जा सकता।...कम से कम अभी कुछ वर्ष तक।  जब वे लोग इतिहास का अंग बन जाएंगे-शायद बन ही जाएं-तो दूसरी बात होगी।

बात को अन्त से आरम्भ की ओर न ले जाकर आरम्भ से अन्त की ओर ले जाना ही ठीक  होगा। दोनों पात्रों के नाम अभी नहीं बताए जा सकते। इसीलिए अभी 'कवियित्री' और 'नेता',  इन दो उपनामों से ही सन्तोष करना पड़ेगा।
घटना के कारणों का आरम्भ पुराना है-यानी पूरी एक पीढ़ी पहले की बातें और वातावरण।  विदेशी शासन के बन्धन के साथ तब रूढ़ि के बन्धन भी काफी कड़े थे। परन्तु उस संकीर्णता में भी कुछ नवयुवक राष्ट्रीय भावना से अपने आपको न्योछावर करने की विशाल-हृदयता का  परिचय देते थे। वैसी उदारता आज नवयुवकों में दिखाई नहीं देती। शायद आज परिस्थिति  उसकी मांग भी नहीं करती।
जिस 'नेता' की बात कह रहा हूं, वह उस समय ऐसा ही नवयुवक था। सभी लोग उसे  प्रतिभासम्पन्न समझकर विश्वास करते थे कि
वह अपना भविष्य सफल और उज्जवल बना सकेगा। परन्तु उसने राष्ट्रीय भावना की पुकार सुन कर अपना सब कुछ-तात्कालिक सुख, सफलता, भविष्य, बल्कि जीवन ही-न्योछावर कर दिया। हम कई लोगों में उतना साहस नहीं था। इसलिए हमने उसका आदर करके ही सन्तोष पाया। आदर करने वाले इन लोगों में 'कवियित्री' भी थीं। उस समय वे थीं प्रस्फुटित होते यौवन के उद्वेग में, जब कि नि:स्वार्थता और त्याग भी सीमाओं को तोड़कर ही बहना चाहते हैं। उस समय उनकी भावनाएं कविता की वाणी का माध्यम पाकर जनश्रुत नहीं हो पाई थीं और प्रतिक्रिया में प्रसिद्धि ने उन्हें आदर से ऊंचा नहीं उठा दिया था। परन्तु हृदय तो वही था-उद्वेग और भावना की अपरिमित शक्ति से भरा।

जैसे पतंगों को जलती दीपशिखा की ओर जाने के लिए कोई नहीं कहता और उस ओर जाने से रोक भी नहीं सकता, वैसे ही कवियित्री नेता के आदर्श से आकर्षित होकर उसके पथ का  अनुसरण करने के लिए व्याकुल थीं-कर्तव्य के पथ पर मृत्यु की खाईं में भी उतने ही उत्साह से कूद जाने के लिए। परन्तु हुआ यह, कि नेता आगे निकल गया और कवियित्री साथ देने के लिए-उसका हाथ पकड़ने के लिए-बांह फैलाती-फैलाती पिछड़ गई, जरा पिछड़ गई।

नेता राष्ट्रीय मुक्ति के लिए अपनी जान पर खेल कर विदेशी शासन पर चोट करने के प्रयत्न में गिरफ्तार हो गया। सभी जानते थे कि इस साहस का मूल्य नेता को फांसी या आजन्म कारावास का दण्ड भोग कर देना होगा। इस घटना से हम सभी को चोट लगी; परन्तु विदेशी शासन के आतंक से-और इतना साहस न होने पर-मौन आदर और सहानुभूति के सिवा कर ही क्या सकते थे! कवियित्री के लिए यह आघात केवल राष्ट्रीय भावना की पीड़ा तक सीमित नहीं रहा। शायद व्यक्निगत कुछ था ही नहीं। शायद सभी कुछ व्यक्तिगत भी था।

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