''मै समझती हूं, इसमें साफ और बेसाफ की बात ही क्या है? मैं स्वयं नहीं
चाहती कि आप और बेला दीदी के बीच में कांटा बन कर रहूं और आपकी बदनामी का
कारण बनूं।''
''पर पारूं...''सहसा रुक कर नीहार बाबू फिर बोले-''बेला का सन्देह और बाहर
की बदनामी मेरे लिए एक असह्य यन्त्रणा-सी जरूर हैं; किन्तु तुम्हारे बिना
जीवन की अब जैसे कल्पना ही नहीं कर पाता। तुमने पतझर के सूने मन्दिर में
जैसे देवता की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी है, जीवन के आकर में पावस की पहली
फुहार ला दी है। तुम्हारे बिना...''
''बस, बस, आप तो कविता ही करने लगे।'' एक विकल मुस्कराहट के साथ क्षीण
स्वर में पारुल ने कहा...''पर मैं इस स्थिति में रह कैसे सकती हूं? माना
कि मैं अनाथा हूं, निराश्रिता हूं और आपके शब्दों में भ्रष्टा भी हूं ही।
फिर भी आखिर तो मैं एक भारतीय नारी हूं, जो, युग-युगातीत से परम्पराओं की
सारी गुलामी स्वीकार करके भी आत्मबोध और विवेक तथा नारी की मर्यादा और
सम्मान की बन कर रह सकती हूं, पर रखैल बन कर नहीं।''
''यह तुम क्या कह रही हो, पारू?''
''वही, जो आप स्पष्ट नहीं कह सके। क्षमा करें नीहार बाबू, मैं आप जितनी
पढ़ी-लिखी और सुसम्य नहीं; पर इतना जानती हूं कि विवश होकर नारी भले ही
बलात्कार की शिकार हो जाय, स्वेच्छा से वह भ्रष्टता और पतन को कभी अंगीकार
नहीं कर सकती। आपकी आंखें शायद नारी-देह की कमनीयता और कोमलता देखने की ही
अभ्यस्त हैं, उसकी अन्तरात्मा नहीं। खैर, जाइए, सो रहिए। वक्त काफी हो गया
है?''
''यह तुम क्या कह रही हो, पारुल?'' हतप्रभ हो नीहार बाबू ने कहा और उठ कर
बोले-''तुम मुझे गलत समझ रही हो, पारू।''
''अच्छी बात है, वही सही। अब इसका निर्णय सुबह होगा। अभी आप जाकर सो
रहें।''
नीहार बाबू अभी अपने कमरे में प्रवेश करने जा ही रहे थे कि बरामदे के
दूसरे छोरवाले कमरे का पर्दा हटा कर अंधेरे में ही बेला ने
कहा-''अब किस बात का निर्णय होना बाकी रह गया है? तुम दोनों मिल कर क्यों
मुझे बेवकूफ बना रहे हो। कहते हैं मुझे सन्देह है। भला, क्या
मैं अपनी आंखों पर भी विश्वास न करूं।''
हड़बड़ा कर पारुल उठी और बेला के कमरे की ओर बढ़ते हुए बोली-''यह क्या किया
दीदी आपने? आपको पलंग पर से उठना नहीं चाहिए था। अभी आप काफी
कमजोर हैं। क्या कुछ चाहिए आपको?''
''हां, मुझे चाहिए मौत? और तो तूने सब कुछ दे ही दिया है। चुड़ैल कहीं
की?'' यह कह क्रोध से दांत पीसते हुए ज्यों ही बेला ने मुड़ना चाहा, चौखट
को थामे हुए हाथ फिसले और वह वहीं गिर पड़ी। पारुल के मुंह से एक चीख निकल
गई। नीहार बाबू दौड़े और उन्होंने तथा पारुल ने मिल कर बेला को उसे पलंग पर
लिटा दिया। दोनों बिना कुछ बोले एक दूसरे की ओर देख कर फिर बेला को देखने
लगे।
नियत समय पर जब सुबह की चाय नहीं आई, तो नीहार बाबू कुछ झल्लाए हुए से
अपने कमरे से बाहर आए। देखा, जहां रात को पारुल सोया करती थी
वहां दो बोरे जरूर पड़े हैं, पर अपनी गुदड़ी और मैले तकिए के साथ वह स्वयं
गायब थी। वहां कागज का पुर्जा पड़ा था, जिस पर लिखा था-''दीदी के
स्वास्थ्य लाभ करने से पहले ही वादा-खिलाफी कर चले जाने के लिए
मुझे क्षमा करें। जो कुछ आपने मेरे लिए किया, उसके लिए जीवन भर आपकी
ऋणी रहूंगी।'' मेरे दोषों और त्रुटियों के लिए क्षमा कर सकें,
तो अवश्य कर दें-हतभगिनी पारू।''
नीहार बाबू को जैसे एक गहरा आघात-सा लगा। पुर्जा बेला की मेज पर रख, बिना
कुछ खाए-पिए वे कपड़े बदल कर बाहर चले गए?
...Prev | Next...