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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ



(3)


आज 12 बज जाने पर भी नीहार बाबू को नींद नहीं आ रही थी। जब-तब वे घड़ी देखते, करवट बदलते, आंखें मूंदते और खोलते-पर नींद नहीं आई। अभी-अभी एक पुस्तक पढ़ने का असफल प्रयत्न कर उन्होंने उसे बन्द कर अलग रख दिया था। शरीर उनका बड़ा शिथिल और थका-सा था; पर दिमाग की सारी नसें जैसे तन रही थीं और वह बीसियों घोड़ों की शक्ति से किसी अज्ञात लोक में उड़ा जा रहा था।

ऐसी अवस्था उसकी पहले तो कभी नहीं हुई थी। फिर आज क्यों हो रही थी, ऐसा सोचते-सोचते वे असलियत के पास पहुंचते-पहुंचते मानो आंखें बन्द कर लौट पड़ना चाहते थे। पर आदमी सब से दूर भाग सकता है, अपने आप से नहीं। अपने आपको कोई धोखा नहीं दे सकता। आखिर परेशान होकर वे पलंग पर से उठ खड़े हुए और बत्ती जला कर कमरे में टहलने लगे। उनकी सांस तेजी से चल रही थी और ललाट पर पसीना झलकने लगा था। वे अपने आपको सम्हाल नहीं पा रहे थे।

आखिर कमरे का दरवाजा खोल वे बाहर बरामदे में आए और वहां की बिजली जलाई। देखा, दो बोरों पर एक गुदड़ी फैलाए गुडी-मुड़ी हुई पारुल लेटी है। पर ज्यों ही उनकी आंखें मैले तकिये पर रखे उसके सिर की ओर गईं, वे यह देख कर अवाक रह गए कि पारुल जाग रही है और उसकी दोनों आंखों से आंसू जारी हैं। एक आह उनके होठों तक आकर मानो रुक गई। जीवन और यौवन का यह विरल वरदान क्या तिल-तिल कर यों छीजने के लिए ही है?

नीहार बाबू को देखते ही हड़बड़ा कर पारुल उठ बैठी और धोती का पल्ला सिर पर लेती हुई बोली-''अरे आप! और इस समय?"

''हां, मैं पारुल,'' कह कर उसके पास बैठते हुए नीहार बाबू ने कहा-''दुश्चिन्ता के मारे मुझे नींद नहीं आ रही, पारुल! इसीलिए इधर चला आया।''

''दुश्चिन्ता?'' आंखें पोंछते हुए पारुल ने पूछा-''कैसी, किस बात की दुश्चिन्ता।''

''यही बताता हूं, पारू! कई दिन से सोच रहा था कि तुमसे सारी बातें स्पष्ट ही क्यों न कर लूं। अच्छा हुआ, जो तुम जगती हुई मिल गईं, नहीं तो शायद आज भी यह बात स्थगित ही रहती।''

आंखें फाड़ कर नीहार बाबू की ओर देखते हुए पारुल ने पूछा-''कौन सी बात?'

पारुल की आंखों से आंखें मिला कर देखने का साहस जैसे नीहार बाबू में न हो, उन्होंने दृष्टि नीची कर कहा-''आज बेला ने तुमसे जो कुछ कहा, उसके लिए मैं शर्मिन्दा हूं और तुमसे क्षमा मांगता हूं। मेरे और तुम्हारे बारे में उसका सन्देह तो निर्मूल जरूर है, पर डाह नहीं; क्योंकि वह देख-समझ रही है कि तुमने आकर मेरे मरु-से वीरान और जलते हुए जीवन में नव वसन्त की एक कोंपल खिला दी है। तुमने एक बहुत बड़ी हद तक बेला का स्थान ले लिया है और जीवन का सूनापन भर दिया है। इससे तुम्हारे प्रति मेरा अनुराग स्वाभाविक है। पर इससे अधिक कुछ नहीं। मैं अभी भी हृदय से बेला को प्यार करता हूं और उसके प्रति पूरा वफादार हूं। पर वह सन्देह के कारण पागल हो गई है। उसने जान-पहचान के सब लोगों में यह बात फैला दी है कि मेरा तुमसे अनुचित सम्बन्ध है। हमारे देश में लोग ऐसी बातों के लिए न सर्फ हमेशा कान ही खोले बैठे रहते हैं, बल्कि सहज ही विश्वास भी कर लेते हैं। कल हमारे बड़े अफसर ने भी मुझे बुला कर कहा कि आपके चाल-चलन के बारे में इधर कई शिकायतें सुनने में आई हैं। मैं समझ नहीं पा रहा कि...'' कहते-कहते ज्यों ही नीहार बाबू ने सर उठाया, तो देखा कि पारुल की आंखें झुकी हुई हैं और उनसे टप-टप आंसू गिर रहे हैं।

बिना आंखें ऊपर उठाए ही पारुल ने कहा...-''आप क्या समझ नहीं पा रहे? मैं स्वयं कई दिनों से आपसे इस बारे में खोल कर बात करना चाहती थी मगर बहुत दिनों की झिझक और संकोच ने जबान खुलने न दी। अच्छा हुआ, जो आपने ही आज मेरी सहायता की।'' सकपका कर नीहार बाबू ने कहा...''हां, मतलब यह है कि बात तो साफ-साफ ही होनी चाहिए।''

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