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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''मैं तो खूब होश में हूं, आप अपने होश की दवा कीजिए।'' बेला ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा-''इससे तो अच्छा है कि आप दोनों मिल कर मुझे मार ही डालें और फिर चैन-आराम से रहें।''
''बेला!'' नीहार बाबू के स्वर और चेहरे से जैसे क्रोध फूट पड़ा। तेजी से वे कमरे में इधर-उधर टहलने लगे। टहलते-टहलते उन्होंने बेला के पलंग के पास रखी तिपाई पर रखे प्याले पर ढकी प्लेट को उठा कर देखा और बोले-''यह साबूदाना आज भी नहीं खाया तुमने?''
बेला चुप रही। इस पर उन्होंने फिर डपट के स्वर में पूछा-''मैं पूछता हूं कि यह साबूदाना क्यों नहीं खाया तुमने?''

''खाती कैसे? इसे तो कोई जानवर भी न खाएगा। कोई ढंग से बना कर दे, तब तो खाऊं। कभी कहती हूं कि पतला बनाना, तो गाढ़ा जमा कर रख देती है। कभी कहती हूं कि मीठा बनाना, तो नमकीन बना कर रख देती है। आज मुंह फीका-फीका-सा हो रहा था, सो मैंने कहा कि आज साबूदाना मीठा बनाना। पर रानी जी मेरी बना पर क्यों ध्यान देने लगीं भला। 1-1 1/2 बजे तो बनाया और उसमें भी जलन के मारे नमक-ही-नमक भर दिया।''

अभी नीहार बाबू कुछ कहें, इससे पहले ही दूसरी तरफ के दरवाजे का परदा हटा कर पारुल ने कहा-''छि: छि: इतनी छोटी-सी-बात के लिए आप व्यर्थ क्यों झूठ बोल रही हैं, दीदी! साबूदाना तो मैंने आपको ठीक दस बजे ही बना दिया था। और वह नमकीन नहीं आपकी फर्माइश के मुताबिक मीठा ही बनाया गया। पर मुझसे बदला लेने के लिए आपने उसे छुआ और चखा तक नहीं।'' यह कह हटा हुआ परदा छोड़ कर पारुल वहां से चली गई।

बेला कुछ कहे, इससे पहले ही नीहार बाबू ने साबूदाने के प्याले में से एक चम्मच भर कर अपने मुंह में डाला और उसे खाकर बोले-''बहुत नमक भरा है न इसमें! पता नहीं, ऐसी झूठी औरत से कैसे पार पाया जाए।'' और फिर अधीर-से तेजी से कमरे में टहलने लगे।

बेला सिसकने लगी। कमरे के दमघोटू वातावरण में और अधिक ठहरना मानो नीहार बाबू के लिए असम्भव हो गया। तेजी से वे कमरे से बाहर हो गए।

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