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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''वही सामान्य, घर पर रह कर; ज्यादा नहीं।'' और बिना नीहार बाबू के कुछ कहने की प्रतीक्षा किए ही पारुल वहां से चली गई। नाश्ता खत्म कर नीहार बाबू पत्नी के कमरे में पहुंचे। देखा, वह गुम-सुम बैठी छत की ओर देख रही है। नीहार बाबू के कमरे में प्रवेश करने पर भी उसकी आंखें छत से हटी नहीं-मानो उनके आने का आभास उसे हुआ ही न हो। नीहार बाबू उसकी आदत से सुपरिचित थे, अत: उन्होंने ही अपना रोज का प्रश्न दोहराया-''कैसी तबीयत है, बेला?''

बेला ने कोई उत्तर नहीं दिया। इस पर नीहार बाबू ने फिर पूछा-''मैं पूछ रहा हूं तुम्हारी तबीयत कैसी है?
बिना छत पर से अपनी दृष्टि हटाए बेला बोली-''जैसी इस धर में होनी चाहिए, वैसी ही है। अब फुरसत मिली है आपको मेरी तबीयत का हाल पूछने की?
''अभी ही तो आ रहा हूं। दफ्तर से आकर नाश्ता किया और बस इधर चला आया।''
''बस, बस, रहने दीजिए। झूठ मत बोलिए मेरे सामने अब।'' ''झूठ? कैसा झूठ? मैं समझा नहीं।''
''समझेंगे कैसे, दीदे जो बन्द हैं।''
''क्या मतलब तुम्हारा?
गर्दन में एक झटका-सा देकर बेला ने अपनी रुआसी आंखें पति की ओर करके कहा-''दफ्तर से लौटे आपको काफी देर हुई। पर उस लाडली से फुसुर-फुसुर हँस-हँस कर बातें करने से फुरसत मिले, तब तो कोई मेरी तरफ देखे। पहले दफ्तर से 1-2 बार फोन करके मेरी तबीयत का हाल पूछा करते थे और आते ही मेरे सिरहाने बैठ जाते थे। अब
जब से वह चुड़ैल आई है, जैसे मेरी कोई परवाह ही नहीं आपको। तबीयत तो मेरी खराब है, पर वह लाडली आई है, जैसे आपकी देख-रेख के लिए। और आप भी...''

''बेला!'' डपटने के स्वर में बेला की बात काटते हुए नीहार बाबू ने कहा-''तुम शायद होश में नहीं हो। तुम्हें नहीं मालुम कि तुम यह क्या अनाप-शनाप बक रही हो।''

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