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कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ

27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


(2)


ज्यों ही नीहार बाबू ने घर में प्रवेश किया, पारुल उन्हें दरवाजे पर ही खड़ी मिली-मानों उनकी प्रतीक्षा ही कर रही हो। उनका चेहरा खिल सा गया। अभी वे कुछ कहने ही जा रहे थे कि पारुल ने दोनों हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा-''लाइए अपना कोट, हैंगर पर टांग आऊं।''

ओ हां,'' जैसे खोए हुए से नीहार बाबू ने कहा और कोट उतार कर पारुल को देते हुए बोले-''देखता हूं घड़ी चाहे अनियमित हो जाय; पर तुम्हारे कानून-कायदों में जरा भी फर्क नहीं पड़ सकता। अच्छा पारुल, एक बात बताओगी?''
''क्या?'' लापरवाही से कोट को हैंगर पर टांग कर नीहार बाबू की ओर लौटते हुए पारुल ने पूछा।
''यही कि तुम तो ठहरीं निरी देहात की लड़की, तुमने भला यह सब नियम-कायदे कहां सीखे?''

''तो आपके ख्याल सें कर्तव्य का बोध और ढंग से रहने का प्रमाणपत्र सिर्फ शहरों में पैदा होने या रहने से ही मिल सकता है?''
''सो तो नहीं, पर...''
बीच ही में बात काट कर पारुल ने खाने की मेज की ओर बढ़ कर एक प्लेट पर ढकी बड़ी प्लेट उठाते हुए कहा-''पर-वर कुछ नहीं, पहले आप यह जलपान कीजिए। मैं तब तक चाय का पानी ले आती हूं।'' यह कह कर पारुल बिना नीहार बाबू की स्वीकृति की प्रतीक्षा किए ही कमरे से बाहर चली गई।

नीहार बाबू एक अज्ञात पुलक से भर कर खाने की मेज पर जा बैठे और एक-एक चीज उठा कर खाने लगे। इन चीजों में आज जैसे एक नया-सा स्वाद था।

नीची आंखें किए पारुल चाय की केटली लेकर आई और उसे मेज पर रख कर ज्यों ही जाने को हुई, नीहार बाबू ने कहा-''पारू, यह मिठाई और नमकीन कहां से मंगवाए हैं? बड़े स्वादिष्ट हैं।''

कुछ सकुचा कर पारुल ने कहा-''बस, अब मेरी हँसी न उड़ाइए। आज कोई बाजार जाने वाला था नहीं, इसलिए जैसा कुछ भी मैं जानती थी, घर पर ही बना लिया।''

''बस, बस! इस झूठे संकोच और औपचारिकता को छोड़ो। कल से तुम घर ही में सब चीजें बना लिया करना। तुम तो जान पड़ता है, पाकशास्त्र में भी पारंगत हो।''

पारुल सचमुच लजा गई थी, यह उसके गालों पर दौड़ आई क्षणिक लाली से स्पष्ट था। उसने इससे भी अच्छे-अच्छे पकवान बनाबना कर अपने बूढ़े बाप को खिलाए थे; पर बेचारा वह निर्धन बूढ़ा पारुल के हाथ की बनी चीजें खाते समय भी उनके स्वाद से अधिक उसके हाथ पीले करने की चिन्ता में ही खोया रहता था। कभी उसके मुंह से भूल कर भी एक शब्द तक पारुल की बनाई चीजों की प्रशंसा में नहीं निकला। और पारुल भी जैसे ऊंट के मुंह में जीरा दे-देकर प्रशंसा की उपेक्षा से उदासीन हो गई थी। उसका कोमल मन भी अपने विवाह की चिन्ता में घुलते-घुलते बाप को देखकर जैसे पथरा गया था।
पारुल को विचार-मग्न देख कर नीहार बाबू ने चाय ढालते हुए कहा-''तुम किस सोच में पड़ गईं, पारु?''
''कुछ भी तो नहीं,'' अपनी आंखों में चमक आए आंसुओं को छुपाने के लिए मुंह दूसरी ओर फेरते हुए पारुल ने कहा-''सोच रही थी कि जाकर शाम के खाने का इन्तजाम करू।''
''अभी से शाम का खाना? इतनी जल्दी क्या है भला?''
''जल्दी का कारण है।''
''वह क्या, सुनू भला?''
''आज गृहस्वामी की वर्षगांठ है, इसलिए कुछ खास चीजें बनानी हैं।''
नीहार बाबू को खुशी से एकबारगी जैसे रोमांच हो आया। गद्गद्द कंठ से उन्होंने कहा-''पगली कही की? पर तुमने कैसे जाना कि मेरा जन्म-दिन आज है? मुझे तो खुद भी याद नहीं।''
दबे हुए स्वर में पारुल ने कहा-''बैठक में आपका जो विश्व-विद्यालय का उपाधि-पत्र टंगा है, उससे मालूम हुआ। सोचा, आप बहुत उदास और चिन्तित रहते हैं, सो आज इसी बहाने आपको एक 'सरप्राइज' दूं।''
''क्या कहा 'सरप्राइज'?'' नीहार बाबू मानो कुर्सी से उछल पड़े-''तो तुम अंग्रेजी भी पढ़ी हो?''

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