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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''आप भी थोड़ी देर सो जाइए।'' वह पीछे टेक लगाए शायद कुछ सोच रही थी या केवल देख रही थी। उसने उसी मुद्रा में यह अनुरोध किया।
''आपको नींद आ रही है, आप सो जाइए।'' मैंने कहा।
''मैंने आपसे कहा था न, मुझे गाड़ी में नींद नहीं आती। आप सो जाइए।''
''अच्छी बात है!'' और, मैंने बिस्तर पर लेट कर कम्बल ऊपर ले लिया। मेरी आंखें देर तक शून्य भाव से बत्ती को देखती रहीं, जिसके साथ झुलसा हुआ कीड़ा चिपक कर रह गया था।
''रजाई भी ले लीजिए। काफी ठंड है।''-उसने कहा।
''नहीं, अभी जरूरत नहीं।''-मैं बहुत से गर्म कपड़े पहने हूं''-मैंने कहा।
''ले लीजिए, नहीं तो बाद में ठिठुरते रहिएगा।''
''नहीं, ठिठुरूंगा नहीं।''-मैंने कम्बल गले तक लपेटते हुए कहा-''और, थोड़ी-थोड़ी ठंड लगती रहे, तो अच्छा रहता है।''
''बत्ती बुझा दूं?''-कुछ क्षण बाद उसने पूछा।
''नहीं, रहने दीजिए।''

''नहीं, बुझा देती हूँ-ठीक से सो जाइए।'' और, उसने उठ कर बत्ती बुझा दी। मैं काफी देर अंधेरे में छत की ओर देखता रहा। फिर मुझे नींद आने लगी।
शायद रात आधी से अधिक बीत चुकी थी, जब इंजन के भोंपू की आवाज से मेरी नींद खुली। आवाज कुछ ऐसी भारी थी कि मेरे सारे शरीर में एक सिहरन सी भर गई। पिछले किसी स्टेशन पर इंजन बदल गया था।
गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी, तो मैंने सिर थोड़ा ऊंचा उठाया। सामने की सीट उस समय खाली थी। वह महिला न जाने किस स्टेशन पर उतर गई थी। वह इसी स्टेशन पर न उतरी हो, यह सोच-कर मैंने खिड़की का शीशा उठाकर बाहर देखा। प्लेटफार्म बहुत पीछे रह गया था और एक बत्तियों की कतार के अतिरिक्त कुछ स्पष्ट दिखाई
नहीं दे रहा था। मैंने शीशा फिर खींच लिया-अन्दर की बत्ती अब भी बुझी हुई थी। बिस्तर में नीचे को सरकते हुए मैंने लक्ष्य किया कि मैं कम्बल के अतिरिक्त रजाई भी ओढ़े हुए हूं, जिसे अच्छी तरह कम्बल के साथ मिला दिया गया है। उष्णता की अनेक सिहरनें एक साथ मेरे शरीर में भर गईं।
ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ व्यक्ति उसी तरह जोर-जोर से खर्राटें भर रहा था।

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