कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
मोहन सिंह सेंगर
मूर्ति की तरह अचल खड़ी पारुल को अपलक दृष्टि से अपनी ओर घूरते देख कर जैसे व्यवस्थापिका का रहा-सहा धैर्य भी जाता रहा और आवेश में अपनी कुर्सी पर से उठते हुए उन्होंने डपटने के स्वर में कहा-''अरी ओ हतभागिनी, सुना कान खोल कर, मैंने क्या कहा? मैं तुझसे कह रही हूं, तुझसे; दीवार से नहीं।''
पर इस आक्रोश का भी जैसे पारुल पर कोई असर न हुआ। वह उसी तरह खड़ी-की-खड़ी आंखें फाड़े व्यवस्थापिका को देखती रही। न उसके मुंह से एक भी शब्द निकला और न उसके चेहरे का भाव ही बदला। इस पर व्यवस्थापिका की बत्तीसी भिंच गई और अन्य कोई उपाय न देख उन्होंने मेज पर पड़ा रूल उठाया और उसे मजबूती से पकड़ कर पारुल की ओर बढ़ते हुए कहा-''ठहर चुड़ैल कहीं की, आज तुझे इस अवज्ञा और ढिठाई का मजा चखाती हूं।''
इस पर भी पारुल जहां की तहां, ज्यों की त्यों, खड़ी ही रही। ज्यों ही चण्डिका का रूप धारण किए व्यवस्थापिका उसके पास पहुंची कि देखा उसके पीछे ही दरवाजे के बाहर एक स्त्री और एक पुरुष खड़े हैं। व्यवस्थापिका को देखते ही उन्होंने नमस्कार किया और पूछा-''आप ही हैं इस कैम्प की व्यवस्थापिका श्रीमती सुजाता देवी?''
व्यवस्थापिका ने हाथ के रूल को पीठ पीछे छुपाते और चेहरे पर आक्रोश की जगह अनुनय का कृत्रिम भाव लाते हुए कहा-''हां, हां,
आप भीतर आइए। अच्छा, बेटी पारुल, अब तुम जा सकती हो; मैं तब तक इन लोगों से बातें करती हूं।''
इस बार पारुल मानो कुछ पिघली। घृणा, क्रोध और विस्तृष्णा-भरी एक कड़ी नजर उसने गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली व्यवस्थापिका के चेहरे पर डाली और एक झटके के साथ गर्दन मोड़ कर तेजी से कैम्प के बरामदे की ओर चली गई। न कुछ कह कर भी जैसे वह बहुत-कुछ कह और कर गई थी पर इस समय इस पर गौर करने का मौका न था, सुजाता देवी के लिए।
व्यवस्थापिका ने आगन्तुकों को आदरपूर्वक कुर्सियों पर बिठाया और एक बड़ी मेज के पीछे रखी अपनी कुर्सी पर बैठते हुए बोलीं-''कहिए, कैसे कृपा की आप लोगों ने?''
आगन्तुक पुरुष ने कहा-''मुझे शरणार्थी पुनर्वास कमिश्नर ने आपके पास भेजा है। बात यह है कि हम लोगों को, केवल दो प्राणियों की, एक छोटी-सी गृहस्थी है। कोई सन्तान नहीं है। (पास बैठी स्त्री की ओर इशारा करके) इनकी तबीयत खराब रहती है। हम लोग चाहते हैं कि यदि आपके कैम्प में कोई ऐसी सुशील लड़की हो, जो उनकी देख-रेख कर सके और घर-गृहस्थी का काम भी सम्हाल सके तो नौकर नहीं, बल्कि परिवार के एक सदस्य के रूप में ही हमारे घर में उसके लिए स्थान हो सकता है।''
''यह तो बड़ा अच्छा विचार है। आप वैसे हैं कहां के और यहां करते क्या हैं?''
''मैं पूर्वी बंगाल का हूं और यहां एक सरकारी अफसर हूं। हजार रुपए मासिक के लगभग आय है। फिर कैम्प से तो हमारे घर में उसे अधिक ही सुख मिलेगा।''
''क्यों नहीं, जरूर।''
''पर लड़की होनी चाहिए ब्राह्मण, क्योंकि इनको हर किसी के हाथ का खाने में जरा परहेज है।''
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