कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
अपनी जगह पर आकर मैंने टांगें सीधी करके पीछे को टेक लगा ली। कुछ क्षण
बाद, मैंने आंखें खोलीं, तो मुझे लगा कि वह शायद हाथ-मुंह धोकर आई है। फिर
भी, उसके चेहरे पर मुर्दनी छा रही थी। मेरे भी ओंठ सूख रहे थे। फिर भी,
मैं थोड़ा मुसकराया।
''क्या हुआ? आपका चेहरा ऐसा क्यों हो रहा है?''-मैंने पूछा।
''मैं कितनी मनहूस हूं...'' कहकर उसने अपना निचला ओंठ जरा-सा काट लिया।
''क्यों?''
''अभी मेरी वजह से आपको कुछ हो जाता...''
''वाह! यह खूब सोचा आपने!''
''नहीं। मैं हूं ही ऐसी...'' वह बोली-''जिन्दगी में हर एक को दुख ही दिया
है। अगर कहीं आप न चढ़ पाते...''
''तो?''
''तो?'' उसने ओंठ जरा सिकोड़े,-''तो मुझे पता नहीं...पर...''
उसने खामोश रह कर आंखें झुका लीं। मैंने लक्ष्य किया कि उसकी सांस
जल्दी-जल्दी चल रही है। उस क्षण मैंने अनुभव किया कि
वास्तविक संकट की अपेक्षा कल्पना का संकट कितना बड़ा और खतरनाक होता है!
शीशा थोड़ा उठा रहने से खिड़की से हवा आ रही थी। मैंने खींच कर शीशा नीचे कर
दिया।
''आप क्यों गए थे पानी लाने के लिए? आपने मना क्यों नहीं कर दिया?''-उसने
पूछा।
उसके पूछने के लहजे से मुझे हँसी आ गई।
''आपने ही तो कहा था!''-मैंने कहा।
''मैं तो मूर्ख हूं, कुछ भी कह देती हूं। आपको तो सोचना चाहिए था।''
''अच्छा, मैं अपनी गलती मान लेता हूं।''
यह सुन कर उसके मुरझाए हुए ओंठों पर भी मुसकराहट फैल गई।
''आप भी कहेंगे, कैसी लड़की है!''-उसने कहा-''सच कहती हूं, मुझे जरा अक्ल
नहीं है। इतनी बड़ी हो गई हूं, पर अक्ल अभी वालिश्तभर भी नहीं
है। सच!''
मैं फिर हँस दिया।
''आप हँसते क्यों हैं?''-उसने शिकायत के स्वर में पूछा।
''मुझे हँसने की आदत है!''-मैंने कहा।
''हँसना अच्छी आदत नहीं है।''
मुझे इस बात पर फिर हँसी आ गई।
वह शिकायत भरी दृष्टि से मुझे देखती रही।
गाड़ी की रफ्तार फिर बहुत तेज हो गई थी। ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ व्यक्ति
सहसा हड़बड़ा कर उठ बैठा और जोर-जोर से खांसने लगा। खांसी का दौरा शान्त
होने पर उसने कुछ क्षण छाती को हाथ से दबाए रखा और फिर भारी
आवाज में पूछा-''क्या बजा है?''
''पौने बारह।''-मैंने उसकी ओर देख कर उत्तर दिया।
''कुल पौने बारह?''-उसने निराश स्वर में कहा और फिर लेट गया। कुछ ही देर
में वह फिर खर्राटें भरने लगा।
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