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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


खिड़की के शीशे पर इतनी धुंध जमा हो गई थी कि उसमें अपना चेहरा भी नहीं दिखाई देता था।
गाड़ी की रफ्तार धीमी हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। दो-एक बत्तियां तेजी से निकल गईं, तो मैंने खिड़की का शीशा थोड़ा उठा दिया। बाहर से आती हुई बर्फानी हवा के स्पर्श ने जैसे स्नायुओं को सहला दिया। गाड़ी एक बहुत नीचे प्लेटफार्म के बराबर खड़ी हो रही थी।

''यहां थोड़ा पानी मिल जाएगा?''
मैंने चौंक कर देखा कि वह अपनी टोकरी में से कांच का गिलास निकाल कर अनिश्चित भाव से अपने हाथ में लिए हुए है। उसके चेहरे की रेखाएं पहले से ही गहरी हो रही थीं।
''आपको पानी पीने के लिए चाहिए?''-मैंने पूछा।
''हां, कुल्ला करूंगी या पिऊंगी। न जाने क्यों, ओंठ कुछ अधिक चिपक-से रहे हैं। बाहर इतनी  ठंड है, फिर भी...''
''मैं देखता हूं। यदि मिल जाए, तो...''
कह कर मैंने गिलास उसके हाथ से ले लिया और जल्दी से प्लेटफार्म पर उतर गया। न जाने कैसा सुनसान स्टेशन था कि कही भी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी। प्लेटफार्म पर आते ही हवा के झोंकों से हाथ-पैर सुन्न होने लगे। मैंने कोट के कालर खड़े कर लिए। प्लेटफार्म के जंगले के बाहर से फैलकर ऊपर आए हुए दो-एक वृक्ष हवा में सरसरा रहे थे। इंजन के भाप छोड़ने से लम्बी शूं-शूं की आवाज सुनाई दे रही थी। शायद वहां सिगनल न मिलने की वजह से ही रुक गई थी।
दूर, कई डिब्बे पीछे, मुझे एक नल दिखाई दिया और मैं तेजी ते उसकी ओर चला। ईटों के प्लेटफार्म पर अपने जूते की एड़ियों का शब्द मुझे बहुत अपरिचित-सा लग रहा था। मैंने चलते-चलते गाड़ी की ओर देखा। किसी खिड़की से कोई चेहरा नहीं झांक रहा था। मैं नल के पास जा गिलास में पानी भरने लगा, तभी एक हलकी-सी सीटी देकर गाड़ी एक झटके के साथ चल पड़ी। मैं भरा हुआ पानी का गिलास लेकर अपने डिब्बे की ओर दौड़ा। मुझे दौड़ते हुए लगा कि मैं डिब्बे तक नहीं पहुंच पाऊंगा और बिना सामान के सर्दी में उस अंधेरे और सुनसान प्लेटफार्म पर मुझे रात बितानी पड़ेगी। मैं और भी तेज दौड़ने लगा। किसी तरह मैं अपने डिब्बे के दरवाजे के बराबर पहुंच गया, तो मैंने देखा कि दरवाजा खुला है और वह दरवाजे के पास खड़ी है। उसने हाथ बढ़ा कर गिलास मुझसे ले लिया। फुटबोर्ड पर चढ़ते हुए एक बार मेरा पैर जरा सा फिसला, पर दूसरे ही क्षण मैं स्थिर होकर खड़ा हो गया। इंजन तेज होने की चेष्टा में हलके-हलके झटके दे रहा था और ईंटों के प्लेटफार्म के स्थान पर अब नीचे अस्पष्ट गहराई दिखाई देने लगी थी।
''अन्दर आ जाइए।''-उसके ये शब्द सुन कर मुझे महसूस हुआ कि फुटबोर्ड से आगे भी कुछ गन्तव्य है। डिब्बे के अन्दर कदम रखते हुए मेरे घुटने जरा-जरा कांप रहे थे।

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