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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


मैं सहसा सचेत हुआ और बोला-''हां, मैं आपकी ही बात सोच रहा था। कुछ लोग होते हैं,  जिनसे दिखावटी शिष्टाचार के संस्कार आसानी से नहीं ओढ़े जाते। आप भी शायद उन्हीं लोगों में से हैं।''
''मैं नहीं जानती।''-वह आंखें मूंदकर बोली-''मगर मैं इतना जानती हूं कि मैं बहुत से परिचित लोगों के बीच अपने को अपरचित, बेगाना और विजातीय अनुभव करती हूं। मुझे लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है। मैं इतनी बड़ी होकर भी वह कुछ नहीं जान-समझ पाई, जो लोग  छुटपन में ही सीख जाते हैं। दीशी का कहना है कि मैं सामाजिक दृष्टि से बिलकुल 'मिसफिट'  हूं।''
''आप भी यही समझती हैं?''-मैंने पूछा।
''कभी समझती हूं, कभी नहीं समझती।''-वह बोली-''एक खास तरह के समाज में जरूर अपने  को 'मिसफिट' अनुभव करती हूं। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके बीच आकर मुझे बहुत  अच्छा लगता है। ब्याह से पहले मैं दो-एक बार कालेज की पार्टी के साथ पहाड़ों पर घूमने के  लिए गई थी। वहां सब लोगों को मुझसे यही शिकायत रहती थी कि जहां बैठ जाती हूं, वहीं की हो जाती हूं। मुझे पहाड़ी बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनके घर के लोगों से भी बहुत  जल्दी दोस्ती कर लेती थी। एक पहाड़ी परिवार की मुझे आज याद आती है। उस परिवार के  बच्चे मुझसे इतना घुल-मिल गए थे कि मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें छोड़कर उनके घर से चल पाई। मैं दो घण्टे उन लोगों के पास रहती थी। उन दो घण्टों में मैंने उन्हें नहलाया-धुलाया भी और उनके साथ खेलती भी रही। बहुत ही अच्छे बच्चे थे वे। हाय, उनके चेहरे इतने लाल थे  कि क्या कहूं? मैंने उनकी मां से कहा कि वह अपने छोटे लड़के किशनू को मेरे साथ भेज दे।  वह हँस कर बोली कि तुम सभी को ले जाओ, यहां कौन इनके लिए तोशे रखे हैं। यहां तो दो साल में इनकी हड्डियां निकल आएंगी-वहां खा-पीकर अच्छे तो रहेंगे। मुझे उसकी बात सुन कर रुलाई आने को हो गई। मैं अकेली होती तो शायद कई दिनों के लिए उन लोगों के पास रह जाती। ऐसे लोगों में जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। अब तो आपको भी लग रहा होगा कि कितनी अजीब हूं मैं। वे कहा करते हैं कि मुझे किसी अच्छे मनोविद् से अपना विश्लेषण कराना चाहिए, नहीं तो किसी दिन मैं पागल होकर पहाड़ों पर भटकती फिरूंगी...''।

''यह तो अपने-अपने निर्माण की बात है...'' मैंने कहा-''मुझे खुद आदिम संस्कारों के लोगों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है। मैं आज तक एक जगह घर बनाकर नहीं रह सकता और न ही आशा है कि कभी रह सकूंगा। मुझे अपनी जिन्दगी की जो रात सबसे ज्यादा याद आती है, वह रात मैंने पहाड़ी गूजरों की एक बस्ती में बिताई थी। उस रात उस बस्ती में एक ब्याह था, इसलिए सारी रात वे लोग शराब पीते रहे और नाचते रहे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, जब मुझे बाद में बताया गया कि वे गूजर दस-दस रुपये के लिए इनसान का सुन भी कर देते थे।''
''आपको सचमुच इस तरह की जिन्दगी अच्छी लगती है?''-उसने कुछ आश्चर्य और अविश्वास के साथ पूछा।
''आपको शायद खुशी हो रही है कि पागल होने की उम्मीदवार अकेली आप ही नहीं हैं!''-मैंने मुसकराकर कहा। वह भी मुसकराई। उसकी आंखें सहसा भावनापूर्ण हो उठीं। उस एक क्षण में मुझे उन आंखों में न जाने कितना कुछ दिखाई दिया-करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजस और सौहार्द! उसके ओंठ कुछ कहने के लिए कांपे, लेकिन कांप कर ही रह गए। मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिए मुझे महसूस हुआ कि मेरा मस्तिष्क बिलकुल खाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कह रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। उसकी आंखों में सहसा सूनापन भरने लगा और आधे क्षण में वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी ओर से आंखें हटा लीं।
बत्ती के आस-पास उड़ता हुआ कीड़ा उसके साथ सट कर झुलस गया था।
बच्ची नींद में मुसकरा रही थी।

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