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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


उस थोड़े से समय में ही उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव मुझे परिचित लगने लगा था। उसकी बात सुनते हुए मेरे हृदय पर हलकी उदासी छाने लगी थी, हालांकि मैं जानता था कि वह कोई भी बात मुझे लक्ष्य करके नहीं कह रही थी-वह अपने से बात करना चाह रही थी और मेरी उपस्थिति उसके लिए एक बहाना मात्र थी। मेरी उदासी भी उसके लिए न होकर अपने लिए ही थी, क्योंकि बात उससे करते हुए भी मैं सोच अपने विषय में ही रहा था। मैं पांच साल से मंजिल-दर-मंजिल विवाहित जीवन में से गुजरता आ रहा था, रोज यही सोचते हुए कि शायद आनेवाला काल जिन्दगी के इस ढांचे को बदल दे। सही तौर पर हर चीज ठीक थी, कहीं कुछ गलत नहीं था; मगर आन्तरिक तौर पर जीवन कितना संकुल और विषमता की रेखाओं से भरा था! मैंने विवाह के शुरू के दिनों में ही जान लिया था कि नलिनी मुझसे विवाह करके सुखी नहीं हो सकती, क्योंकि मैं जीवन में उसकी कोई भी महत्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं हो सकता। वह एक भरा-पूरा घर चाहती थी, जिसकी वह शासिका हो और ऐसा सामाजिक जीवन चाहती थी, जिसमें उसे महत्व का दर्जा प्राप्त हो। वह अपने से स्वतन्त्र अपने पति के मानसिक जीवन की कल्पना नहीं करती थी। उसे मेरी भटकने की वृत्ति और साधारण का मोह, मानसिक विकृतियां प्रतीत होती थीं, जिन्हें वह अपने अधिक स्वस्थ जीवन दर्शन के बल से दूर करना चाहती थी। उसने इस विश्वास के साथ जीवन आरम्भ किया था कि मेरी त्रुटियों की क्षति पूर्ति करती हुई वह बहुत कुछ शीघ्र मुझे सामाजिक दृष्टि से एक सफल व्यक्ति बनने की दिशा में प्रेरित करेगी। उसकी दृष्टि में यह मेरे वंशगत संस्कारों का दोष था, जो मैं इतना अन्तर्मुख रहता था और इधर-उधर मिलकर आगे बढ़ने का प्रयत्न नहीं करता था। वह इस परिस्थिति को सुधारना चाहती थी, पर परिस्थिति सुधरने की बजाय और बिगड़ती ही गई। वह जो कुछ चाहती थी, वह मैं नहीं कर पाता था और जो कुछ मैं चाहता था, वह उससे नहीं होता था। हम दोनों में अकसर बहस-मुबाहिसा हो जाता था और कई बार दीवारों से सिर टकराने की नौबत आ पहुंचती थी। परन्तु यह सब हो चुकने पर नलिनी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाती थी और उसे फिर मुझसे यह शिकायत होती थी कि मैं दो-दो दिन अपने को उन साधारण घटनाओं के प्रभाव से मुक्त क्यों नहीं कर पाता। परन्तु मैं दो-दो दिन तो क्या, कभी भी उन घटनाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं होता था और रात को जब वह सो जाती थी, तो घंटों तकिए में मुंह छिपा कर कराहता रहता था। नलिनी आपसी झगड़े को उतना अस्वाभाविक नहीं समझती थी, जितना मेरे रात भर जागने को। इसके लिए वह मुझे 'नर्व' टानिक लेने की सलाह दिया करती थी। विवाह के पहले दो वर्ष इसी तरह कटे थे और उसके बाद हम लोग अलग-अलग जगह काम करने लगे थे। हालांकि समस्या ज्यों की त्यों वर्तमान थी और जब कभी हम इकट्ठे होते, वही पुरानी जिन्दगी लौट आती थी-फिर भी, नलिनी का यह विश्वास अभी कम नहीं हुआ था कि कभी न कभी मेरे सामाजिक संस्कारों का उद्बोध अवश्य होगा और तब हम साथ सुखी रहकर दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर सकेंगे।

''आप कुछ सोच रहे हैं?''-उस महिला ने अपनी बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।

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