''मैं बहुत पागल हूं।''-वह फिर बोली-''वे जितना मुझे रोकते हैं, मैं उतना
ही ज्यादा रोती हूं। दरअसल, वे मुझे समझ नहीं पाते। मुझे बात करना अच्छा
नहीं लगता, फिर न जाने क्यों, वे मुझे बात करने के लिए मजबूर करते हैं!''
और फिर, माथे को हाथ से दबाए हुए वह बोली-''आप भी अपनी पत्नी से
कभी जबर्दस्ती बात करने के लिए कहते हैं।
मैंने पीछे टेक लगा कर कन्धे जरा सिकोड़े और हाथ बगलों में दबाए हुए, बत्ती
के पास उड़ते हुए कीड़े को देखा। फिर मैंने सिर को जरा झटक कर उसी ओर देखा।
वह उत्सुक आंखों से मेरी ओर देख रही थी।
''मैं?''-मैंने मुसकराने की चेष्टा करते हुए कहा-''मुझे यह कहने का अवसर
ही नहीं मिल पाता। मैं तो पांच साल से यह चाह रहा हूं कि वह जरा कम बातें
किया करें। मैं समझता हूं कि कई बार इनसान चुप रह कर ज्यादा बात कह सकता
है। जबान से कही हुई बात में वह रस नहीं होता, जो आंख की चमक से, या ओंठों
के कम्पन से, या माथे की एक लकीर से कही हुई बात में होता है। मैं जब उसे
यह समझाना चाहता हूं, तो वह मुझसे पहले विस्तारपूर्वक बता देती है कि
ज्यादा बात करना इनसान की निश्छलता का प्रमाण है, और यह भी कि मैं इतने
वर्षों में अपने प्रति उसकी सद्भावना को समझ ही नहीं सका। वह, दरअसल,
कालेज में लेक्चरर है, और उसे घर में भी लेक्चर देने की आदत है।''
''ओह!'' वह थोड़ी देर तक दोनों हाथों में मुंह छिपाए रही; फिर बोली-''ऐसा
क्यों होता है, वह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे दीशी से यही शिकायत है कि
वे मेरी बात समझ नहीं पाते। मैं कई बार उनके बालों को छूकर अपनी उंगलियों
से बात करना चाहती हूं, कई बार उनके घुटनों पर सिर रख कर मुंदी हुई आंखों
से उनसे कितना-कुछ कहना चाहती हूं; लेकिन उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता।
वे
कहते हैं कि यह सब गुड़ियों का खेल है-उनकी पत्नी को जीता-जागता इनसान होना
चाहिए।...और मैं इनसान बनने की बहुत कोशिश करती हूं, लेकिन बन नहीं पाती,
कभी नहीं बन पाती। उन्हें मेरी कोई आदत अच्छी नहीं लगती। मेरा मन होता है
कि चांदनी रात में खेतों में घूमूं, या नदी में पैर डालकर घंटों बैठी
रहूं; मगर वे कहते हैं कि ये सब 'आइडिल' मन की वृत्तियां हैं। उन्हें
क्लब, संगीत, सभाएं और-डिनर पार्टियां अच्छी लगती हैं। मैं उनके साथ वहां
जाती हूं, तो मेरा दम घुटने लगता है। मुझे वहां जरा सी भी आत्मीयता प्रतीत
नहीं होती। वे कहते हैं कि तू पिछले जन्म में मेंढकी थी, तभी तुझे क्लब
में बैठने की बजाय खेतों में मेंढकों की आवाजें सुनना ज्यादा अच्छा लगता
है। मैं कहती हूं कि मैं इस जन्म में भी मेंढकी हूं। मुझे बरसात में भीगना
बहुत अच्छा लगता है और भींग कर मेरा मन गुनगुनाने को होने लगता है,
हालांकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे क्लब में सिगरेट के धुएं में घुट कर
बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। वहां मेरे प्राण गले को आने लगते हैं।''
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