कहानी संग्रह >> 27 श्रेष्ठ कहानियाँ 27 श्रेष्ठ कहानियाँचन्द्रगुप्त विद्यालंकार
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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ
बाहर वही सुनसान अंधेरा था-वही निरन्तर सुनाई देती हुई इंजन की फक्-फक्।
शीशे से आंख गड़ा लेने पर दूर तक वीरानगी ही वीरानगी नजर आती थी।
परन्तु उस महिला की आंखों में जैसे संसार भर की वत्सलता सिमट कर आ गई थी।
वह कई क्षण अपने में डूबी रही, फिर
उसने एक सांस ली और बच्ची को अच्छी तरह कम्बल में लपेट कर सीट पर लिटा
दिया।
ऊपर की सीट पर लेटा हुआ व्यक्ति खर्राटे भरने लगा था। एक बार वह नीचे
गिरने को हुआ, पर सहसा हड़बड़ा कर संभल गया। कुछ ही देर बाद वह और जोर से
खर्राटें भरने लगा।
''लोगों को न जाने सफर में कैसे इतनी गहरी नींद आ जाती है!''-वह
बोली-''मुझे दो-दो रातें सफर करना हो, तो भी नहीं सो पाती। अपनी-अपनी आदत
होती है। क्यों?''
''हां, आदत की ही बात है।''-मैंने कहा-''कुछ लोग बहुत निश्चिन्त होकर जीते
हैं और कुछ होते हैं कि...''
''बगैर चिन्ता के जी ही नहीं सकते!'' और, वह जरा हँस दी। उसकी हँसी का
स्वर भी बच्चों जैसा ही था। उसके दांत बहुत छोटे-छोटे और चमकीले थे। मैंने
भी उसकी हँसी में योग दिया।
''मेरी बहुत खराब आदत है।''-वह बोली-''मैं हमेशा बात-बेबात के सोचती रहती
हूं। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं सोच-सोच कर पागल हो
जाऊंगी। वे मुझसे कहते हैं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना चाहिए,
हँसना-बोलना चाहिए, मगर उनके सामने मैं ऐसी गुमसुम हो जाती हूं कि क्या
कहूं! वैस अकेले में भी मैं ज्यादा नहीं बोलती, लेकिन उनके सामने तो ऐसी
चुप्पी छा जाती है, जैसे मुंह में जबान ही न हो।...अब देखिए, यहां कैसे
लतर-लतर बोल रही हूं!'' और, वह मुसकराई। उसके चेहरे पर हलकी सी संकोच की
रेखा भी आ गई।
''रास्ता काटने के लिए बात करना जरूरी हो जाता हैं...''-मैंने कहा-''खास
तौर पर, जब नींद न आ रही हो।''
उसकी आंखें पल भर फैली रहीं। फिर वह गर्दन जरा झुका कर बोली-''जिन्दगी
कैसे काटी जा सकती है? ऐसे इनसान में और एक पालतू पशु में क्या फर्क है?
मैं हजार चाहती हूं कि उन्हें खुश दिखाई दूं और उनके सामने कोई न कोई बात
करती रहूं, लेकिन मेरी सारी कोशिश बेकार चली जाती है। फिर उन्हें गुस्सा
हो आता है और मैं रो देती हूं। उन्हें मेरा रोना बहुत बुरा लगता है।''
कहते-कहते उसकी आंखों में दो बूंद आंसू झलक आए, जिन्हें उसने अपनी साड़ी के
पल्ले से पोंछ दिया।
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