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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''बड़ी अच्छी है, मेरी बिट्टू! झट से सो जाती है।'' उसने जैसे अपने से कहा और मेरी ओर देखा। उसकी आंखों में उल्लास भर रहा था।
''कितनी बड़ी है यह बच्ची?''-मैंने पूछा-''सात-आठ महीने की होगी...''
''महीना भर बाद पूरे एक साल की हो जाएगी।'' वह बोली-''पर यह देखने में अभी छोटी लगती है। लगती है न?''
मैंने आंखों से उसकी बात का समर्थन किया। उसके चेहरे से अजब विश्वास और भोलापन झलकता था। मैंने उचक कर सोई हुई बच्ची के गाल को जरा सहला दिया। महिला का चेहरा और वत्सल हो गया।
''लगता है, आपको बच्चों से बहुत प्यार है।''-वह बोली-''आपके कितने बच्चे हैं?''
मेरी आंखें उसके चेहरे से हट गईं। बिजली की बत्ती के पास एक कीड़ा उड़ रहा था।
''मेरे?''-मैंने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा-''अभी तो कोई नहीं, मगर...''
''मतलब ब्याह हुआ है, अभी बच्चे-अच्चे नहीं हुए।'' वह मुसकराई-''आप मर्द लोग तो बच्चों से बचे ही रहना चाहते हैं...है न?''
मैंने ओंठ सिकोड़ लिए और कहा-''नहीं, यह बात नहीं....''
''हमारे वे तो बच्ची को छूते भी नहीं।''-वह बोली-''कभी दस मिनट के लिए भी उठाना पड़ जाए, तो झल्ला पड़ते हैं। अब तो, खैर, वे इस मुसीबत से छूट कर बाहर ही चले गए हैं...''  और सहसा उसकी आंखें छलछला आईं। रुलाई की वजह से उसके ओंठ बिलकुल उसकी बच्ची जैसे हो गए। फिर उसके ओंठों पर मुसकराहट आ गई, जैसा अकसर सोए हुए बच्चों के साथ  होता है। उसने आंखें झपका कर उन्हें ठीक कर लिया और कहा-''वे डाक्टरेट के लिए इंग्लैंड गए हैं। मैं उन्हें बम्बई में जहाज पर चढ़ा कर आ रही हूं।...वैसे छ: या आठ महीने की ही बात है। फिर, मैं भी उनके पास चली जाऊंगी।''

फिर उसने ऐसी नजर से मुझे देखा, जैसे उसे शिकायत हो कि मैंने उसकी रहस्य की बात क्यों जान ली!
''आप बाद में अकेली जाएंगी?''-मैंने पूछा-''इससे तो अच्छा होता कि आप अभी साथ चली जातीं।
उसके ओंठ सिकुड़ गए और आंखें फिर अन्तर्मुख हो गईं। वह कई क्षण अपने में डूबी रही और उसी तरह बोली-''साथ तो नहीं जा सकती थी, क्योंकि अकेले उनके जाने की भी सुविधा नहीं थी। लेकिन उनको मैंने भेज दिया है। मैं चाहती थी कि उनकी कोई तो चाह मुझसे पूरी हो जाए। दीशी को बाहर जाने की बहुत साध थी। अब छ: या आठ महीने में अपनी तनख्वाह में से कुछ बचाऊंगी और थोड़ा-बहुत कहीं से उधार लेकर अपने जाने का बन्दोबस्त भी करूंगी।''
उसने अपनी कल्पना में डूबती-उतराती आंखों को सहसा सचेत कर लिया और कुछ क्षण शिकायत की नजर से मुझे देखती रही। फिर बोली-''अभी यह बिट्टू भी बहुत छोटी है न-छ: या आठ महीने में यह बड़ी हो जाएगी! मैं भी तब तक और पढ़ लूंगी। दीशी की बहुत चाह है कि मैं एम० ए० कर लूं। मगर मैं ऐसी जड़ और नाकारा हूं कि उनकी कोई चाह पूरी नहीं कर पाती। इसीलिए मैंने उन्हें भेजने के लिए अपने सब गहने बेच दिए हैं। अब मेरे पास सिर्फ मेरी बिट्टू रह गई है।'' और, वह उसके सिर पर हाथ फेरती हुई गर्वपूर्ण दृष्टि से उसे देखती रही।

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