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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

बुद्धिमान् पुरुष उत्तम स्तुति करके निम्नांकित मन्त्रों से प्रार्थना करे -

तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्वित्तोऽहं सदा मृड।
कृपानिधे इति ज्ञात्वा यथा योग्यं तथा कुरु।।
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।
कृपानिधित्वाज्ज्ञात्वैव भूतनाथ प्रसीद मे।।
अनेनैवोपवासेन यज्जातं फलमेव च।
तेनैव प्रीयतां देव: शङ्कर: सुखदायक:।।
कुले मम महादेव भजनं तेऽस्तु सर्वदा।
माभूत्तस्य कुले जन्म यत्र त्वं नहि देवता।।  

'सुखदायक कृपानिधान शिव! मैं आपका हूँ। मेरे प्राण आपमें ही लगे हैं और मेरा चित्त सदा आपका ही चिन्तन करता है। यह जानकर आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। भूतनाथ! मैंने जानकर या अनजान में जो जप और पूजन आदि किया है उसे समझकर दयासागर होने के नाते ही आप मुझ पर प्रसन्न हों। उस उपवास व्रत से जो फल हुआ हो, उसी से सुखदायक भगवान् शंकर मुझपर प्रसन्न हों। महादेव! मेरे कुल में सदा आपका भजन होता रहे। जहाँ के आप इष्टदेवता न हों, उस कुल में मेरा कभी जन्म न हो।'

इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् भगवान् शिव को पुष्पांजलि समर्पित करके ब्राह्मणों से तिलक और आशीर्वाद ग्रहण करे। तदनन्तर शम्भु का विसर्जन करे। जिसने इस प्रकार व्रत किया हो, उससे मैं दूर नहीं रहता। इस व्रत के फल का वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे शिवरात्रि-व्रत करनेवाले के लिये मैं दे न डालूँ। जिसके द्वारा अनायास ही इस व्रत का पालन हो गया, उसके लिये भी अवश्य ही मुक्ति का बीज बो दिया गया। मनुष्यों को प्रतिमास भक्तिपूर्वक शिवरात्रि-व्रत करना चाहिये। तत्पश्चात् इसका उद्यापन करके मनुष्य सांगोपांग फल लाभ करता है। इस व्रत का पालन करने में मैं शिव निश्चय ही उपासक के समस्त दुःखों का नाश कर देता हूँ और उसे भोग-मोक्ष आदि सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ।

सूतजी कहते हैं- महर्षियो! भगवान् शिव का यह अत्यन्त हितकारक और अद्भुत वचन सुनकर श्रीविष्णु अपने धाम को लौट आये। उसके बाद इस उत्तम व्रत का अपना हित चाहनेवाले लोगों में प्रचार हुआ। किसी समय केशव ने नारदजी से भोग और मोक्ष देनेवाले इस दिव्य शिवरात्रि-व्रत का वर्णन किया था।

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